देश आज़ादी के तुरंत पश्चात् देश के अन्दर एक दौर चला जिसमे समाजवादी और साम्यवादियों मे अपनी-अपनी विचार धारा को श्रेष्ठ सावित करने को होड सी लग गयी ५० और ६० का दशक था, वामपंथी और समाजवादी होना गौरव की बात थी, यहाँ पर साम्यवादी बड़े-बड़े नाम जैसे अमृतपाद डांगे, ज्योतिबसु, डॉ एम् जी बोकरे दूसरी तरफ आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ लोहिया, आचार्य कृपलानी, जयप्रकाश जैसे बड़े-बड़े नाम समाजवादियों के थे इन विचारधाराओं ने देश में अपनी- अपनी पैठ भी जमाया, जहाँ साम्यवादियों ने २-३ प्रान्तों में अपनी सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की वहीँ समाजवादियों ने भी कई प्रान्तों में अपनी सरकारें व समलित सरकारें बनायीं, लेकिन इसकी परिणिति कुछ इस प्रकार हुई जहाँ-जहाँ वामपंथियों की सरकारें थी वहां-वहां उन्होंने गरीब को गरीब बनाये रखने में सफलता हासिल की और विकाश विरोधी, शिक्षा बिरोधी विचार आधार भूत ढांचे को समाप्त करना अपना लक्ष्य बनाया, अधिक दिनों तक देश में सफलता नहीं मिलने पर धीरे-धीरे साम्यवाद आतंकवाद के रूप में परिणित हो गया उन्होंने अपने नए-नए पाकेट खड़े कर सीधे-सादे वनवासियों पिछड़ों के हाथों में हथियार पाकडा दिए अपनी सत्ता हेतु संविधान बिरुद्ध वैलेट द्वारा नहीं तो बुलेट द्वारा सत्ता की आकांक्षा ने देश को आतंकवाद की आग में झोकाना ही लक्ष्य.
समाजवाद ने अपने आकार को बढाया एक समय ऐसा भी आया की श्रीमती इंद्रा गाँधी ने अपने को समाजवादी बताकर चंद्रशेखर जैसे समाजवादियों को बड़ी संख्या में कांग्रेस की तरफ खीच लिया डॉ लोहिया का नारा ''डाक्टर लोहिया ने बाँधी गाठ पिछड़े पावें सौ में साठ''काम नहीं आया, भारत में मुख्य विपक्षी दल कुछ प्रान्तों में सरकारें एक समय लगता था की आने वाला समय समाजवादियो का ही है आपात-काल के पश्चात् तो लगता था की समाजवादियों ही सरकारे अब देश चालाएगी लेकिन वे अपनी आदत से वाज नहीं आये आपस में लड़ना स्वाभाव और समाजवादी धीरे-धीरे ब्यक्ति केन्द्रित हो गए जार्ज फर्नांडिज, चंद्रशेखर, मधुलिमये, दंडवते जैसे बड़े-बड़े समाजवादी अपना प्रभाव छोड़ते चले गए, आपात-काल में नए-नए नेताओं का उदय हुआ कहीं मुलायम सिंह यादव, शरद यादव तो कहीं लालू यादव, रामविलास पासवान और नितीश कुमार जैसे नेता देश भर में आगे आये और समाजवाद जातिवाद में परिणित होने लगा इतना ही नहीं तो समाजवाद अब परिवारवाद के रूप में परिणित हो गया जीतनी समाजवादी पार्टियाँ हैं उनके अध्यक्ष व उनके उत्तराधिकारी एक ही परिवार के होने लगे चाहे वे मुलायम हो या,लालू अथवा रामविलास सबकी एक ही कृति है.
जिस प्रकार वामपंथियों की परिणिति आतंकवाद और समाजवाद की परिणिति जातिवाद और परिवारवाद के रूप में हुई क्या राष्ट्रवाद की परिणिति भी उसी प्रकार होने वाली है ----? यह घोर चिंता का विषय है पुरे देश को राष्ट्रवादियों से बड़ी उम्मीद है क्या राष्ट्रवादी उसपर खरा उतर पायेगे -? यह उनकी अग्नि परीक्षा ही है कभी-कभी ऐसा लगता है की यह कार्य ईश्वरीय है पहले लगता था की अटल, आडवानी के पश्चात् कौन लेकिन आज ईश्वर ने एक उभरते हुए चेहरे को सामने किया है जहां जाती, पंथ और भाषा आड़े नहीं आ रही है वह समग्र भारत का नेता होकर उभरा है सभी को पीछे छोड़कर भारतीय परिदृश्य पर छा गया है, लेकिन बीजेपी इस समय जाती-पाति में कहीं फंस न जाय अभी-अभी बिहार बीजेपी के सुप्रीमो सुशिल मोदी लोकसभा के प्रत्येक क्षेत्र से बीजेपी के कार्यकर्ताओं को बुलाकर जातीय आकड़ों की पूछ-ताछ कर रहें हैं जिसका अच्छा सन्देश नहीं जा रहा है यदि जाती का आकड़ा ही चाहिए तो नेट पर सारी सूचनाएं उपलब्ध हैं वहां से प्राप्त हो सकती है यदि जाती ही जीतने का कारन है तो नरेन्द्र मोदी भारत के नेता नहीं हो सकते और सुशिल मोदी तो बिहार के नेता बिलकुल नहीं हो सकते क्यों की वे जिस जाती से आते हैं वह जाती प्रतिशत में भी बिहार में नहीं है फिर वे बीजेपी के आला मालिक कैसे हो सकते हैं यहाँ बीजेपी को वोट देने वाला एक राष्ट्रवादियों का ग्रुप है जो सभी जातियों से आता है कुछ जातियां जैसे भूमिहार, देशी बनियों का सौ%, राजपूत ९०% मिलता है वैसे तो नारेंद्रमोदी के पक्ष में यादव भी लगभग ५०% वोट देने वाले हैं इनमे से सुशील मोदी किसी भी जाती से नहीं आते फिर वे बिहार के नेता कैसे हो सकते हैं, बीजेपी को अपने नेतृत्व में परिवर्तन करना होगा उन्हें जमीनी नेता जो कार्यकर्ताओं की चिंता कर सके आगे बढ़ाना पड़ेगा वर्तमान में केवल श्री गोपाल नारायण सिंह ही एक ऐसा नेता हैं जिनका संपर्क पूरे प्रदेश में है और कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय हैं विधान सभा में बिपक्ष नेता के लिए सर्वाधिक उपयुक्त नेता चन्द्रमोहन राय हैं जो बिहार में एक प्रभाव शाली समाज से आते हैं सुशील मोदी के प्रति कार्यकर्ताओं में अविश्वास है वे नितीश के इतने नजदीक थे नरेन्द्र मोदी की अपेक्षा नितीश को ही अच्छा प्रधानमंत्री उम्मीदवार मानते थे आज वे उतने मुखर विरोधी हैं क्यों-? इसपर विचार करने की आवश्यकता है, कार्यकर्ताओं का मत है कि कोई दूसरा नेता न उभरने पाए जिससे सेकुलरिष्टों की राह आसान हो सके, ध्यान रहे नरेन्द्र मोदी हिन्दू राष्ट्रवाद के कारन ही लोकप्रिय हैं नकि सेकुलर के नाते.
बीजेपी के बारे में जब विचार करते हैं तो लगता है की इस पार्टी की स्थापना तो तत्कालीन भारत के प्रथम उद्द्योग मंत्री डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संयुक्त मंत्रिमंडल से स्थिपा देकर जनसंघ की स्थापना की थी जिसमे दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेता थे जहाँ वामपंथियों तथा समाजवादियों ने अपना चेहरा बदला है, क्या राष्ट्रवादी भी उसी रास्ते पर जा रहे हैं यदि नहीं तो देश के हित में है यदि हाँ तो देश को निराशा होगी जनसंघ की स्थापना डॉ मुखर्जी ने भारतीय आत्मा की पुकार सुनकर की थी क्या आज इन बीजेपी के नेताओं को भारत के आत्मा की पुकार सुनाई देती है --?