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चेरों राजवंश "पलामू"के बारहवें राजा चित्रजीत राय

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 राजा चित्रजीत राय पलामू राज्य के बारहवें राजा थे और जयनाथ सिंह उनके दीवान थे, कभी हार न मानने वाले स्वतंत्रता प्रेमी और चेरों जनजातीय में बहुत ही लोकप्रिय थे, जनता का भी ऐसा उनके प्रति सम्मान था कि दर दर भटकते हुए जनता अपना राजा अंतिम समय तक चित्रजीत राय को ही राजा मानती रही।

मुगलों से ब्रिटिश तक संघर्ष ही संघर्ष

मुगलों से संघर्ष कर अपने राज्य को स्वतंत्र रखने वाली पलामू के जनजाति, भूस्वामी और किसान थे उन्होंने मुगलों का अधिपत्य स्वीकार नहीं किया उनका अपना स्वतंत्र बड़ा साम्राज्य था। अपने दरबार, सेनाएं थीं। इस्टइंडिया कंपनी धीरे धीरे बुद्धिमत्ता पूर्वक अपने कदम बढ़ा रही थी। भारतीय राजाओं से रोजगार मांगना, पहला कदम मालगुजारी वसूलने का काम फिर सुरक्षा के नाम पर सुरक्षा गार्डों के भर्ती के लिए राजाओं से अनुमति लेकर सुरक्षा गार्ड के स्थान पर सेना की भर्ती करना यह सब भारतीय राजाओं को अंधेरे में रख कर किया जाने वाला कार्य था। इस्टइंडिया कंपनी 12 अगस्त1765 को मुगल बादशाह शाह आलम द्वीतीय से बंगाल, बिहार, उड़ीसा की दिवानी (मालगुजारी) प्राप्त करने के बाद पलामू राज्य पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए थी! और ब्यवस्था में हस्तक्षेप करने का प्रयास करते रहे। राजा जयकृष्ण राय के पोते गोपालराय ने पटना जा अंग्रेजों से सहयोग मांगा। पलामू राज्य की अंतः कलह यानी गृहयुद्ध ने इतनी बड़ी चूक कर दिया, अंग्रेजों को तो बहाना चाहिये था और मिल भी गया। अंग्रेजों ने 9जनवरी 1771 को तत्कालीन राजा जयनाथ सिंह के पास सूचना भेजी की पलामू किला अंग्रेजों को सौंप दिया जाय। अंग्रेजों को इस क्षेत्र में घुसने के लिए उन्हें यह किला सुरक्षित लग रहा था। अंग्रेज इस अवसर को हाथ से निकल जाने देना नहीं चाहते थे। उसके लिए कई प्रकार से तैयारियां करना शुरू कर दिया। प्रलोभन के साथ सीधा संदेश भेजा। दूसरा27 दिसंबर 1770 को ही पलामू पर आक्रमण करने की तैयारियां शुरू कर दी, पटना काउंसिल की योजनानुसार कैप्टन कैमक ने औरंगाबाद में सिपाहियों की दस टुकड़ी के साथ तैनात था।

किले की घेराबंदी

28 जनवरी, 1771 को पलामू किले को घेर लिया गया, चेरों जनजातियों को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया गया। चेरों ने उत्तर दिया कि हम अपने राजा चित्रजीत सिंह के अलावा अन्य किसी भी का आदेश नहीं मानते, चेरों वीरों को इस बात का अंदाजा हो गया था कि यह लंबा चलेगा और इतने समय के लिए यहां पर्याप्त पानी की ब्यवस्था नहीं हो सकता इसलिए चेरों सैनिक किला छोड़कर पुराने किले में चले गए। कैमक ने किले पर अधिकार कर लिया, कैमक को यह समझ में आ गया कि पुराने किले की क्षमता अनुसार सैनिकों की संख्या कम है इसलिए उसने बड़ी तोप मंगवायी। पुराने किले से चेरों सैनिक लगातार हमले करते रहे और अंग्रेज तोपों का इंतजार करते रहे। किले के अतिरिक्त चेरों सैनिक पलामू राज्य भर में फैल गए। अंग्रेजों की आवाजाही पर हमले शुरू हो गए, चेरों सैनिकों ने अंग्रेजों की रसद सामग्री पर भी हमले किए, सौ से अधिक अंग्रेज मारे गए। चेरों सैनिकों का पराक्रम परचम पर था, चेरों सैनिकों ने 3-4फरवरी को हमला किया रसद लाने वाले सैनिकों से संघर्ष किया तमाम अंग्रेज सैनिक मारे गए और रसद छीन लिया।

पलामू किले पर तोपों से हमले

अंग्रेजों को रसद की चिंता थी, 7 फरवरी को अंग्रेज सिपाहियों ने पुराने किले पर सीढियां लगाकर चढ़ना शुरू कर दिया चेरों सैनिकों को सूचना मिलते ही जबाबी कार्यवाही शुरू कर दिया अंग्रेज सैनिक मारे जाने लगे तभी अंग्रेज सैनिकों ने तोपों का सहारा लिया, पलामू किले पर लगातार दो दिनों तक तोपों से हमले करते रहे। अनगिनत चेरों सैनिक बलिदान हुए, 20 फरवरी 1771 को दुर्ग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। राजा चित्रजीत सिंह और जयनाथ सिंह पलायन कर रामगढ चले गए। कैमक ने गोपालराय को पलामू का राजा घोषित कर दिया, पलामू के वीरों ने तत्काल युद्ध विराम कर दिया पर अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं किया। समय समय पर लगातार हमला प्रतिरोध जारी रखा।

अब छापामार युद्ध

राजा चित्रजीत राय और जयनाथ सिंह अज्ञातवास में रहते हुए चेरों जनजाति के प्रेरणा पुंज बने रहे, उन्होंने जून 1771 में पुनः छापामार हमले शुरू कर दिया, अप्रैल1772 में पलामू पर पुनः हमला कर दिया, 25 अप्रैल को चार सौ क्रांतिकारियों ने संघर्ष किया, 26 अप्रैल को स्काट के नेतृत्व में अंग्रेजों की बड़ी पराजय हुई।  सार्जेंट पेल्विन मारा गया और स्काट के पैर में गोली लगी घायल स्काट जयनगर भाग गया। अंग्रेजों ने पूरे पलामू को सैनिक छावनी में बदल दिया। 1772 में चेरो क्रांतिकारियों ने अपनी गतिविधियों को विराम दे दिया, अंग्रेजों के प्रिय गोपालराय राजा बनने के बाद अंग्रेजों के अनुरूप पलामू में नियंत्रण करने में असमर्थ रहा। इसलिए उसे हटाकर हिटली को पलामू का कलेक्टर नियुक्त किया।

राजा जगन्नाथ सिंह और जयनाथ सिंह अज्ञातवास में चले गए लेकिन चेरो ने गुलामी स्वीकार नहीं किया, यहाँ क्रांति और बिरोध के स्वर हमेशा मुखरित होते रहे और 15 अगस्त 1947 तक संघर्ष जारी रखा। जिस प्रकार अपने धर्म की रक्षा के लिए वनों की ओर प्रयाण किया था उसी प्रकार इन चेरों जनजातियों ने अपनी स्वतंत्रता और स्वधर्म कायम रखा इनका संघर्ष हमेशा स्वधर्म के लिए था वे जानते थे धर्म रहेगा तो स्वतंत्रता हम लेकर रहेंगे और एक दिन आया कि हमारा संकल्प पूरा हुआ।


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