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एक बार पुनः देश विभाजन की तरफ बढ़ता भारत -------!

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         भारत कब-तक बिभाजन का दंश झेलता रहेगा-----!
            सभी को ध्यान मे होगा जब भारत मे राष्ट्रवाद चरम पर था यानि श्री राम जन्मभूमि आंदोलन चरम पर था जहां एक तरफ भारत माता- गंगा माता के रथ को लेकर 1983-84 मे पूरे भारत मे यात्रा निकली गयी दूसरी तरफ इस राष्ट्र के जन-जन मे समाये राष्ट्र महापुरुष भगवान श्रीराम की रथयात्रा जो 1985 मे बिहार सितामढ़ी तथा नेपाल के जनकपुर से निकली गयी जो रंजनकी मार्ग से होते हुए लखनऊ मे विशाल जनसभा के रूप मे परिणित हुई अद्भुत जनसमर्थन प्राप्त यात्रा जिसे देश आज़ादी के समय भी देखा नहीं जा सकता था यह श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन १९८५ से १९९२ तक था यह आंदोलन कितना बड़ा था कि जिसने इस आंदोलन को नहीं देखा वह उसकी कल्पना ही नहीं कर सकता, वास्तविकता यह है की यह आंदोलन नहीं यह देश भक्ति का ज्वार था, इस महान आंदोलन की हवा निकलने के लिए सेकुलरिष्ट ताकते अपनी पूरी शक्ति लगा दी इन धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने हमेशा देशद्रोह का ही काम किया है यदि भारत ने इन ताकतों पर विस्वास किया तो आत्मघाती कदम होगा । 
             देश भर जब राम और राष्ट्र एक रूपता ले रहा था उसी समय एक मुस्लिम नेता ने भारत माता को कहा की भारत माता, माता नहीं ये तो डायन है डायन, आखिर भारत अपने बिभाजन का दंश कब तक झेलता रहेगा, जब देश का बिभाजन 15 अगस्त 1947 को हुआ था उस समय कुछ सीधे साढ़े हिन्दुओ ने अपने संबंधी मुसलमानों यानि आस्तीन के साँपों को जनेऊ पहनकर और सिर मे चोटी रखवाकर उन्हे अपने यहाँ वसा लिया उन्हे जाने नहीं नहीं दिया, उस समय वे मुसलमान कहते थे की हम तो यहीं की मिट्टी मे पैदा हुए हैं हम कहाँ जाएगे लेकिन याद रहे की यह सब इस्लाम की योजना से हुआ था, धीरे-धीरे मुसलमानों ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और यहाँ तक बढ़ गया कि बड़ी ही योजना वद्ध तरीके से जिस कॉरीडोर को पाकिस्तान मांग किया करता था कि पश्चिमी पाकिस्ता और पूर्वी पाकिस्ता को जोड़ने हेतु एक मार्ग चाहिए जो किशनगंज, अररिया, पूर्णिया, कटिहार, मधुबनी, दरभंगा, सितमढ़ी, चंपारण, महाराजगंज,सिद्धार्थ नगर, श्रावस्ती, बहराइच, गोंडा, लखीमपुर, अलीगढ़, मुरादाबाद, पीलीभीत, रामपुर होते हुए पाकिस्तान तक जाना इस मार्ग को भारत ने स्वीकार नहीं किया, हम जब विचार करेंगे तो ध्यान मे आयेगा नेपाल के कुछ हिस्से को मिलकर ''मोगलिस्तान"की मांग बार-बार कुछ लोग उठाते रहे हैं, वास्तविकता यह है कि जिस कॉरीडोर को पाकिस्तान मांगता रहा है बांग्लादेश बनाने के पश्चात भी मुसलमान उसे भूले नहीं है वे इस क्षेत्र मे अपनी जनसंख्या बढ़ते जा रहे हैं और गाहे- बेगाहे उसे दर्शाते रहते हैं।
           अब मुसलमान अलग देश की मांग खुलकर करना शुरू कर दिया है उसकी अभिब्यक्ति कभी मुंबई के अमर जवान ज्योति पर हमला कर, शहीदों के स्मारक पर लात मारकर, कभी भारतीय मान्यताओं का अपमान कर, कभी मालदा टाउन, बयसी (पूर्णिया), कटिहार मे हिंदुओं व सरकारी संस्थाओं पर हमला करके तो कहीं मदरसों मे राष्ट्र गान का अपमान करके, तो ओबैसी व आज़म खान जैसे नेता 'भारत माता की जय'का बिरोध करके कहते हैं की चाहे मेरे गले पर तलवार रख दो तो भी मै भारत माता की जय कभी नहीं बोलूँगा--! तो इतना ही नहीं जेएनयू मे भारत तेरे टुकड़े होंगे इंसा अल्ला- इंशा अल्ला, कश्मीर की आज़ादी तक जंग रहेगी- जंग रहेगी, भारत की बरबादी तक जंग रहेगी- जंग रहेगी जैसे नारे लगते हैं, कभी हैदराबाद के उलेमाओं ने भारत माता की जय के खिलाफ फतवा देकर और उत्तर भारत ही नहीं भारत मे बिख्यात सहारनपुर के "दारुल उलूम"मदरसे ने अभी-अभी एक फतवा जारी कर कहा की किसी भी मुसलमान को 'भारत माता की जय'नहीं बोलना चाहिए ये इस्लाम के खिलाफ है कुफ़्र है और अब आगे आशा है की भारत के सभी इस्लामिक मदरसे इसी प्रकार के फतवा जारी करेगे सारा का सारा मुसलमान सड़क पर उतार आयेगा सभी सेकुलर पार्टियां भी उनके साथ होंगी, जैसे महात्मा गांधी, नेहरू जैसे नेता पाकिस्तान के साथ खड़े थे आज ये इस्लामिक संस्थाएं इन जैसी घटना करके ये क्या दर्शाना चाहते हैं ?
          इसके पीछे केवल विदेशी चल ही नहीं सेकुलर के नाम पर देश के विभाजन की साजिश है मुसलमान कभी भी भारत के साथ नहीं रह सकते वे"सरिया"कानून चाहते हैं इस कारण किसी भी मुल्ले या मदरसे ने किसी भी आतंकवादी संगठन आईएसआईएस, आईएस, अलकायदा, हिजबुल मुजाहिद्दीन अथवा अन्य किसी भी इस्लामिक आतंकवादी संगठन के खिलाफ कोई भी फतवा जारी नहीं किया है देश के अंदर एक लाख मदरसे हैं जो आतंकवाद की नरशरी हैं वे भारत के खिलाफ जहर की शिक्षा दे रहे हैं, मस्जिदों मे नमाज के समय भारत पर इस्लाम के विजय हेतु संकल्प लेते हैं, क्या भारतियों को यह सब पता है ? अब मुसलमान धीरे-धीरे अलग देश की तरफ बढ़ रहे हैं जो अब आपके सामने दिखाई दे रहा है आज असम मे बीजेपी को चुनाव प्रचार करना मुस्किल हो रहा है उनके जुलूसों पर बांग्लादेसी मुसलमान हमला कर रहे हैं क्योंकि वह राष्ट्रवादी पार्टी है प बंगाल की भी हालत उसी प्रकार की है जहां-जहां हिन्दू जनसंख्या कम है वहाँ-वहाँ भारत नहीं है वे अपने को पाकिस्तान ही समझते हैं असम, बंगाल, कश्मीर और केरल मे खुले आम पाकिस्तान की मांग व उसके झंडे दिखाई दे रहा है, जब देश का विभाजन 1947 मे हुआ था उस समय भारत मे मुसलमानों की जनसंख्या लगभग तीन करोण थी प पाकिस्तान की हिन्दू जनसंख्या एक करोण थी पूर्वी पाकिस्तान वर्तमान बांग्लादेश मे हिंदुओं की संख्या एक करोण पचास लाख थी, लेकिन आज इतने दिन पश्चात भारत मे मुसलमानों की संख्या बढ़कर 18 करोण हो गयी उसके उलट पाकिस्तान मे हिंदुओं की संख्या घटकर दस लाख और बांग्लादेश मे हिंदुओं की संख्या पचास लाख के आस-पास बची है, हिन्दू समाज को इसपर विचार करना परेगा नहीं तो हम कब-तक देश विभन का दंश झेलते रहेगे --।
       आखिर इस देश की सुरक्षा कौन करेगा, कौन बचाएगा इस पवित्र भारत भूमि को, कौन इस मानवतावादी संस्कृति की रक्षा करेगा तो समझ मे आता है की हिन्दू और केवल हिन्दू, इस कारण हिन्दू समाज को ही जगना, जगाना पड़ेगा नहीं तो कोई और कोई बिकल्प नहीं है, ये जो सेकुलर है या उनकी पार्टियां है ये तो सब मुसलमान हो जाएगे उन्हे कोई मतलब नहीं है इस कारण सोचो समझो और विचार करो-----!         

देश हित में JNU (देशद्रोह व वामपंथ ) जैसी संस्थाएं बंद करनी चाहिए----!

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         जेएनयू जैसी शिक्षण संस्थाएं क्या बंद करने का समय आ गया है----!

         "यथा नामे तथा गुणें"वाली कहावत चरितार्थ होती दिखाई देती है जो संस्थान जवाहर लाल नेहरू के नाम होगी उसकी परिणीति भी वैसी ही होगी जैसे प. जवाहरलाल नेहरू कैसे थे! वे काले अंग्रेज़ थे, वे संयोग वस भारतीय थे उनके अंदर भारतीयता का कोई गुण नहीं था, देश बिभाजन करा देश को धोखा देकर प्रधानमंत्री बने, जब वे प्रधानमंत्री हुए तो उन्होंने भारत के स्वाभिमान से जुडी हुई सारी की सारी शिक्षा समाप्त कर दी जिससे भारतीय स्वाभिमान ही समाप्त हो जाय बच्चों को जिनसे प्रेरणा मिल सके वे सब समाप्त कर दिया जिस कारण देश भक्ति जैसा सब कुछ गायब, भारतीय स्वाभिमान के प्रतिक पृथ्बीराज चौहान, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, स्वामी दयानन्द सरस्वती, शंकराचार्य और चाणक्य चन्द्रगुप्त जैसे को पाठ्यक्रम से हटा दिया जाना इनके स्थान पर राजाराम मोहन राय, अकबर, औरंगजेब और नेहरू जैसे को पाठ्यक्रम मे सामील करना क्या दर्शाता है --?
         JNU की हालत से परेशान दिल्ली हाईकोर्ट की माननीय न्यायाधीश प्रतिभा रानी ने टिप्पड़ी की है कि "जब भी शरीर में संक्रमण फैलता है पहले मुंह के रास्ते दवा देकर उसे रोकने का प्रयास किया जाता है, कई बार सर्जरी करना पड़ता है लेकिन अगर संक्रमण इतना फ़ैल जाय कि मांस सड़ने लगे तो अंग को काटना ही मात्र एक उपाय है"हमें न्यायाधीश कि चेतवानी को ठीक प्रकार से समझनी चाहिए कि यदि हम jnu को सही दिशा में नहीं ल सकते तो उसका क्या करना! क्या शिक्षा और अभिब्यक्ति के नाम पर हम राजधानी में देशद्रोही मदरसा खड़ा करने की छूट देना चाहते हैं नहीं--! यह संभव नहीं है भारत की जनता को यह स्वीकार नहीं समय रहते इसका इलाज होना चाहिए !
         इन वामपंथियों ने बिहार के एक गरीब परिवार के बेटे को जिसे पढाई पर ध्यान देना चाहिए था जो अपने माता- पिता का सहारा बन सकता था उसे सीताराम येचुरी जैसे नेताओं ने "चढ़ जा बेटा सूली पर भगवन भला करेगा ",jnu के माहौल को गलत दिशा में धकेल दिया जेएनयू एक मार्क्सवादी मदरसा बनकर रह गया है, जरुरत है कि समय रहते इस संक्रमण को रोक दिया जाय, इसे सड़ने से बचा लिया जाय, अभिब्यक्ति और वामपंथ के नाम पर यहाँ आये दिन देशद्रोही बे रोकटोक गतिविधियाँ चला रहे हैं इसे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया गया, देशद्रोह फैशन बन गया जो यहाँ देश भक्ति की बात करे उसका मजाक उड़ाया जाता है इस कारन यहाँ के अपरिपक्व क्षात्र लाल श्याही लगा कर शहीद बनने कि कोशिश कर रहे हैं, ये वामपंथी किस स्वतंत्रता की बात करते है क्या वे रसिया में ऐसा कर सकते है-! क्या चीन में अभिब्यक्ति कि स्वतंत्रता है-! रुश, चीन, नेपाल सहित वामपंथी देशों में दश करोड़ लोगो की हत्या करके सत्ता पर काबिज हैं वे किस मुंह से लोकतंत्र और अभिब्यक्ति की बात करते है -?
          अगर आज़ादी चाहिए तो वहां सुब्रमण्यम स्वामी और बाबा रामदेव को जाने की आज़ादी क्यों न हो --? jnu कोई भारतीय राजधानी के अंदर पूर्ण स्वतंत्र गणराज्य तो नहीं जहाँ केवल वही प्रबेश पाएं जिसे हिन्दू शब्द से चिढ हो औेर अति वामपंथी विचार धारा से जुड़े हों मार्क्सवादी विचार में इसका वामपन्थी करण हो चूका है, अब इस संसथान के भारतीय कारन की आवस्यकता है ऐसी विचारधारा क्यों वहां प्रबल हो गयी कि हिन्दू बिरोधी या भारत बिरोधी होकर ही आप प्रगतिशील कहलाएं --? अभिब्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र एक आवस्यक गुण है, लेकिन इसकी कुछ सीमाएं हैं, देश बिरोधी नारे अभिब्यक्ति की आज़ादी का हिस्सा नहीं हो सकती ।
जेएनयूं अपनी स्थापना के समय से वामपंथी विचार धरा का गढ़ रहा है अब यह भारत ही नहीं साडी दुनिया में अपनी प्रासंगिकता खो चूका है, अब इस विश्व विद्यालय से प्रशिक्षित क्षात्र अति वामपंथी बनकर बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के जंगलों में हिंसा हत्या कर रहे हैं यही इनकी उपयोगिता है ये प्रगतिशील के नाम पर ब्यभिचार करना इसी को आज़ादी कहते हैं कैसे हैं इनके माता- पिता जो अपने बच्चों को इस jnu में भेजते हैं । 
          जेएनयूं में लगे पोस्टरों पर इस विश्व विद्यालय कि प्रतिष्ठा के लिए चिंतित प्रोफेसरों और खुद को उत्कृष्ट बताने वालों का मौन सुनाने लायक है, पता नहीं कौन जे एन यूं में देशबिरोधि नारे लगाए और किसने अफजल को शहीद बनने वाला पोस्टर लगाए लेकिन ऐसे ही पोस्टर में कहा गया है "अफजल तुम्हारे अरमानों को हम मंजिल तक पहुंचाएंगे", कुछ लोगों को यह लगता है कि ऐसे- वैसे पर्चे पर कोई ध्यान देने की जरुरत नहीं है, उन्हें रहमत अली से परिचित होना चाहिए, कैम्ब्रिज में ३-हैमबस्टर्न रॉड के एक घर में रहमत अली ने २६ जनवरी १९३३ को पहली बार एक परचा बनाया था जिसमे लिखा था कि पाकिस्तान नाम का अलग देश क्यों, कैसा बनना चाहिए, यह बताने कि जरुरत नहीं कि १९४७ आते-आते क्या हुआ ? जिन्हे यह लगता है कि ऐसे- वैसे नारे तो बस नारे ही होते हैं वे शायद जान- बूझकर आँख बंद किये हैं अथवा यादास्त कमजोर पड़ गयी है उसे ठीक करने की आवस्यकता है। 
       भारतीय राजनीति और राष्ट्रियता के प्रेरणा पुंज आर्य चाणक्य का कहना था कि यदि एक गाँव के कारण एक जनपद बर्बाद होता है तो उस गाँव को समाप्त कर देना चाहिए, उसी प्रकार यदि एक जनपद के कारण कोई प्रदेश का संस्कार नष्ट होता है तो उस जनपद पर विचार करना चाहिए आज समय की अवस्यकता है कि भारत मे बहुत सी शिक्षण संस्थाएं हैं यदि उनमे से कोई देशद्रोही, आतंकवादी और अलगाववादी की नर्सरी बनाता है तो समय रहते उस पर विचार करना चाहिए और कड़ाई पूर्वक उसे बंद कर देना चाहिए इसी मे देश हित है----!                  

दे दी आज़ादी हमे खड्ग बिना ढाल ---क्रांतिकारियों का अपमान ---!

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 दे दी आज़ादी हमे खडग विना ढाल---- क्रांतिकारियों का अपमान-!
         जब-तक देश आज़ाद नहीं हुआ था तब-तक भारत का हिन्दू समाज संघर्ष शील था उसने कभी भी गुलामी स्वीकार नहीं की चाहे बाप्पा रावल रहे हों अथवा पृथ्बीराज चौहान, हिन्दू कुल गौरव महाराणा प्रताप रहे हों अथवा क्षत्रपति शिवाजी महाराज, गुरु गोविन्द सिंह सभी ने भारतीय बलिदानी परंपरा कायम रखी उन्होंने कभी भी भारतीय मस्तिष्क को झुकने नहीं दिया, एक ऐसी परंपरा पड़ गयी कि देश के अंदर कहीं राजपुताना खड़ा हो गया, तो नहीं मराठा कहीं गुरु शिष्य (सिक्ख) खड़े हुए, तो कहीं जाट क्रांतिकारियों की परंपरा अक्षुण बनाए रखी अपने प्रिय देश और धर्म के लिए हज़ारों लाखों बलिदानियों ने तनिक भी झिझक नहीं कि लेकिन पं जवाहर लाल नेहरु ने इन सब देशभक्त क्रांतिकरियों का घोर अपमान करने में कोई कोताही नहीं बर्ती जो अवर्णनीय है।
            हमारे संतों, महात्माओं और बिभिन्न मतों के आचार्यों ने नागा सांधुओं को खड़ा किया यह एक प्रकार की धार्मिक सेना ही थी, इसने इस्लामिक आतताइयों से युद्ध भी किया ऐसा वर्णन मिलता है इसी क्रम में स्वामी रामानन्द ने द्वादश भगवत शिष्य खड़े किये इनके शिष्यों (संत रबिदास, कबीर दास, धन्ना जाट, कुम्भंन दास) ने हिन्दू समांज को खड़ा करने में बड़ा ही उत्कृष्ट काम किया यदि कहा जाय तो वे समरसता के अग्रदूत थे, एक समय ऐसा आ गया की अयोध्या में हिन्दुओं के प्रवेश पर सिकंदर लोदी ने प्रतिबन्ध सा लगा दिया स्वामी रामानन्द के नेतृतव में युद्ध कर विजय प्राप्त किया उसे समझौता करना पड़ा, उसी समय धर्मान्तरित ३४ हज़ार लगो को स्वामी जी ने घर वापसी की, गुरु अर्जुनदेव का बलिदान, गुरु गोविन्द सिंह अपने पिता, पुत्रों सहित शिष्यों के अपने बलिदान को कैसे भुलाया जा सकता है, जाटों, मराठों और राजपूतों के संघर्ष को हम कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं वास्तविकता तो यह है की सारे विश्व में भारत जैसा किसी देश ने संघर्ष नहीं किया इस्लामिक काल तो पूरा देश ही खड़ा हो गया था सारी की सारी सत्ता हिन्दुओं के हाथ में आ गयी थी, कौन कहता है कि "देदी आज़ादी हमें खड्ग बिना ढाल"--? यह हमारे महापुरुषों का अपमान है । 
           ब्रिटिश काल के ऋषि दयानन्द, स्वामी बिवेकनंद, स्वामी श्रद्धानन्द, राम सिंह कूका, विरसा मुंडा, सिद्धू कानू के नेतृतव में हज़ारों क्रन्तिकारी खड़े किये इन्हे कैसे भुलाया जा सकता है, १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम को हम कैसे भुला सकते हैं जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, कुंवर सिंह, अमोढ़ा (बस्ती) के राज़ा जालिम सिंह, नाना साहेब पेशवा, मंगल पांडेय इन क्रांतिकारियों के नेतृतव सारा का सारा देश खड़ा हो गया कौंन समझाए इन नेहरु वादियों को की अंग्रेजों को जब पता लगा की यह संघर्ष गांव-गांव में हुआ, तो कौन किया किसने कराया ! पता चला की प्रत्येक गांव में गुरुकुल है उसके आचार्यों ने यह काम किया जिसमे सभी जाती बिरादरी के लोग थे ब्रिटिश ने बहुत विचार पुर्बक काम किया उसने भारत के सारे पढ़ेलिखे लोगों का संहार करना शुरू किया मैं पुरे देश का तो नहीं बता सकता लेकिन "आउट लुक"पत्रिका ने क्षपा था की केवल उत्तर प्रदेश और बिहार में १८५७ से १८६० के बीच नरसंहार चलता रहा जितने पढ़े लिखे लग थे हत्या कर दी गयी जिनकी संख्या लगभग बीस लाख तक पहुंचती है, आज भी जब इन क्षेत्रों में जाएंगे तो पता चलेगा की इस गांव के इस पेंड पर सैकड़ों लोगों की फांसी हुई है, यह कुंवा तो लाशों से भर गया था ऐसे अनेक किंबदन्ती मिलेंगे, बहराइच जिले के नेपाल बार्डर पर आज भी गुरुकुल का खँडहर दिखाई देता है जिसमे हज़ारों क्षात्र पढ़ते थे, जहाँ 'नानासाहेब पेशवा'सहित बहुत सारे क्रन्तिकारी सैनिक रुके थे जिसे कोटिया घाट कहा जाता है, तोप लगाकर गिरा दिया गया ऐसे कितने गुरुकुल, किले ढहा दिए गए कौन कहता है कि "देदी आज़ादी हमें खडग बिना ढाल"---!    
         
             हम भारत वासियों को आज़ादी की कीमत भूलने को मजबूर किया गया आखिर क्यों-? इसकी साजिस किसने की लाला लाजपत राय को इतना मारा कि उनका सर कभी हिलना बंद नहीं हुआ वे मर गए, क्या हम महान क्रांतिकारी उधम सिंह और मदनलाल ढींगरा के बलिदान को भुला सकते हैं, बिपिनचंद पाल् लोकमान्य तिलक को हम कैसे भूल जांय.! जलियावाला बाग कांड जो आज भी हज़ारों क्रांतिकारियों के बलिदफन का गवाह बना हुआ है, चन्द्रशेखर आज़ाद का बलिदान, भगत सिंह की फांसी, नेताजी सुभाषचंद बोस जिसने 'तुम हमें खून दो हम तुम्हे आज़ादी देंगे'के नारे के साथ युद्ध शुरू किया केवल भारत में ही नहीं तो विदेशों में सेना खड़ी की चलो दिल्ली ब्रिटिश सेना के संघर्ष में "आज़ाद हिन्द फ़ौज"के चौबीस हज़ार सैनिक माँरे गए कैसे यह भुलाया जा सकता है आखिर नेहरु यह क्यों चाहते थे की इन क्रांतिकारियों का नाम यह देश न जानने पाए इनकी उपेक्षा क्यों की गयी ? वास्तव में वे भारत की अगली पीढ़ी को नपुंशक बनना चाहते थे वे देश भक्त नागरिक नहीं चाहते थे वे भारत को समाप्त करना चाहते थे, वे जानते थे कि यदि हिन्दू समाज यह जान गया कि यह देश बलिदान देने के पश्चात आज़ाद हुआ है, तो हमें कोई पूछेगा नहीं, इस कारन वामपंथियों को आगे करके इतिहास क गलत लिखाया जिसमे क्रांतिकारियों को समाप्त कर दिया, इस कारन नेहरु सहित सभी कांग्रेसी अपराधी है जिंहन इस बात को छिपाया आज भी देश की जनता के मन में नेताजी, भगत सिंह, चन्द्रशेखर जैसे नाम क्रन्तिकारियों के प्रति श्रद्धा भक्ति है,भारत के क्रांतिकारियों के सेनापति वीर सावरकर जिन्होंने दोहरा आजीवन कारावास की सजा हुई जिसने भारतीय क्रांतिकारियों को शस्त्र किया जब वे २२ साल के थे तो सरे विश्व में उन्हें क्रन्तिकारी जानते थे 'लेनिन'भी जिनका लोहा मनाता था "इंडिया हॉउस" (इंग्लैण्ड) में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन चलाना वीर सावरकर के ही बस का था जिन्होंने 36 किमी चैनल को तैरकर पार् किया, विदेशों में रह कर (इंडिया हॉउस) भारतीय क्रांतिकारियों की सारी ब्यस्था देखने वाले उनके प्रेरणाश्रोत श्यामजी कृष्णा वर्मा को हम कैसे भुला सकते हैं, कौन कहता है 'देदी हमें आज़ादी हमें खड्ग बिना ढाल "-! नेहरु जी पर मुक़दमा चलना चाहिए इसकी सजा मिलनी चाहिए, जिससे इतिहास इससे सबक ले, यदि यह कहा जाय कि आज़ादी केवल और केवल क्रांतिकारियों ने दिलाई तो कोई अतिसयोक्ति नहीं होगी वास्तविकता यही है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री शासक "लार्ड क्लेमन डेतली"ने पूछने पर यही कहा कि नेताजी सुभाषचंद बोस की आज़ाद हिन्द सेना के कारन हमें देश छोड़कर जाना पड़ा और इसी कारन वे सत्ता का हस्तांतरण एक काळा अंग्रेज (नेहरू) के हाथों किया !
इस कारन यह गीत गाना की 'देदी आज़ादी हमें खड्ग बिना ढाल'यह देशद्रोह तो है ही, ये क्रांतिकारियों का केवल अपमान ही नहीं देश के साथ धोखा भी है---!  

डा भीमराव अम्बेडकर---- एक राष्ट्रवादी चरित्र ----!

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भीमराव अंम्बेडकर : राष्ट्रवादी चरित्र।
           तुम चाहते हो कि भारत कश्मीर की सीमाओं की रक्षा करे, सड़कें बनाए, अन्न की आपूर्ति करे और कश्मीर का दर्जा भारत के ही बराबर हो। और भारत सरकार के पास सीमित ताकत हो। भारतीयों के कश्मीर में कोई अधिकार न हों। मैं भारत का विधिमंत्री हूं। मुझे भारत के हितों की रक्षा करनी है। मैं तुम्हारे प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता।’ डॉ़ आंबेडकर के ये ठोस शब्द सुनकर शेख अब्दुल्ला का दिल बैठ गया। पंडित नेहरू ने अब्दुल्ला को तत्कालीन विधिमंत्री डॉ़ आंबेडकर के पास भेजा था ताकि धारा 370 के प्रस्ताव को हकीकत में बदला जा सके। शेख अब्दुल्ला ने बातचीत की विफलता की सूचना पं. नेहरू को दी तो नेहरू ने शेख को गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेजा। आयंगर ने सरदार पटेल से सहायता की याचना की क्योंकि धारा 370 को नेहरू ने अपनी नाक का सवाल बना लिया था। आखिरकार नेहरू की जिद को रखते हुए धारा 370 के प्रस्ताव को पारित करा लिया गया। अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को आधार बना कर देश के महत्वपूर्ण फैसले करने वाले और नीतियों से ज्यादा व्यक्तित्वों को मान्यता देने वाले नेहरू लार्ड माउंटबेटन और शेख अब्दुल्ला के हाथों में खेल रहे थे। नेहरू की ये मित्रता कश्मीर पर बहुत भारी पड़ी। माउंटबेटन एक असफल कमांडर के रूप में ब्रिटेन लौटे जबकि अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी हुई। राष्ट्रहित से जुड़े मामलांे पर नेहरू और डॉ़ आंबेडकर अक्सर विरोधी खेमों में दिखते रहे। हालांकि आने वाले समय ने बार-बार आंबेडकर को सही ठहराया। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल वे नेहरू की तरह रूमानी नहीं थे। 
           आंबेडकर व्यावहारिकता के कठोर धरातल पर तर्कशील मस्तिष्क के साथ सतर्क कदम बढ़ाने वाले व्यक्ति थे। साथ ही धुर राष्ट्रवादी थे। वे छवि के बंदी नहीं थे। वे तो ध्येय का परछांई की तरह पीछा करने वाले व्यक्ति थे।स्वतंत्र भारत के साथ दुनिया के बहुत से देशों की सहानुभूति और शुभकामनाएं थीं। परंतु नेहरू जी के नेतृृत्व में भारत की विदेश नीति पर समाजवाद का ठप्पा और अव्यावहारिकता का ग्रहण लग गया। गुट निरपेक्षता के नाम पर हम हितनिरपेक्षता की राह पर बढ़ गए। नेहरू अपने समाजवादी और कम्युनिस्ट राष्ट्राध्यक्ष मित्रों की खुशामद के चक्कर में सदा पश्चिम विरोधी भंगिमा में दिखाई दे़ने लगे। जब भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता थाल में सजाकर भेंट की गई, तब घोर अव्यावहारिकता दिखाते हुए उन्होंने उसे चीन की ओर सरका दिया। डॉ़ आंबेडकर के लिए यह असहनीय था। उनके जीवनी लेखक खैरमोड़े ने उनकी वेदना को उन्हीं के शब्दों में बयान किया है ‘भारत को आजादी मिली उस दिन विश्व के देशों से दोस्ती के संबंध थे और वे देश भारत का शुभ चाहते थे। लेकिन आज की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज भारत का कोई सच्चा दोस्त नहीं है। सभी देश भारत के दुश्मन नहीं हैं, फिर भी भारत से बहुत नाराज हैं। भारत के हितों को वे नहीं देखते। इसका कारण है भारत की लचर विदेश नीति। भारत की कश्मीर के बारे में नीति, राष्ट्रसंघ में चीन के प्रवेश के बारे में जल्दबाजी और कोरियाई युद्घ के बारे में अनास्था के प्रति पिछले तीन वषोंर् में बचकानी नीति के कारण अन्य राष्ट्रों ने भारत की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है।
            नेहरू चीन के प्रेम में अंधे हो रहे थे। सरदार पटेल की लिखित चेतावनी (1950) पर उन्होंने कान देना भी जरूरी नहीं समझा। पहले उन्होंने तिब्बत पर चीन के स्वामित्व को स्वीकार कर तिब्बत राष्ट्र और भारत के सुरक्षा हितों दोनों की हत्या कर डाली। उसके बाद वे दुनिया में चीन के पोस्टर ब्वॉय बनकर घूमते रहे। इस पर बाबासाहेब ने सवाल उठाया-”चीन का प्रश्न लेकर हमारे संघर्ष करने का क्या कारण है? चीन अपनी लड़ाई लड़ने के लिए समर्थ है। कम्युनिस्ट चीन का समर्थन कर हम अमरीका को क्यों अपना दुश्मन बना रहे हैं?” उन्होंने नेहरू से प्रश्न किया कि पंूजीवाद का विरोध करते हुए तानाशाही के समर्थन तक जाने की क्या आवश्यकता है? प्रश्न अत्यंत मार्मिक है। क्योंकि जिन नेहरू के सिर पर नेहरूवादी विचारक और वामपंथी लोकतंत्र को मजबूती देने का ताज सजाते आए है, उन्हीं नेहरू को न कभी चीन की बर्बर तानाशाही दिखाई पड़ी, न ही तिब्बतवासियों के मानवाधिकारों की चिंता हुई। वे माओ और चाउ एन लाइ के साथ कबूतर उड़ाते रहे, और माओ करोड़ों चीनियों और तिब्बतियों के खून से होली खेलता रहा। उन्हें चीन पर रत्ती भर विश्वास नहीं था जबकि नेहरू चीन के प्यार में दीवाने हुए जा रहे थे। पंचशील समझौते को लेकर उन्होंने नेहरू पर कटाक्ष किया- ”माओ का पंचशील नेहरू ने गंभीरता से लिया यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। पंचशील बौद्घ धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। माओ का पंचशील पर विश्वास होता तो उसके अपने देश के बौद्घ बंधुओं से उसका अलग बर्ताव होता। राजनीति में पंचशील का कोई काम नहीं है और कम्युनिस्ट राजनीति में तो बिल्कुल नहीं। सभी कम्युनिस्ट देश दो तत्वों को प्रमाण मानते हैं। पहला तत्व यह कि नैतिकता अस्थिर होती है, और दुनिया में नैतिकता कुछ नहीं होती। आज की नैतिकता कल की नैतिकता नहीं होती।” नेहरू के दिवास्वप्नों का जवाब चीन ने भारत की पीठ में खंजर उतारकर दिया।
            भारतीय विदेशनीति के कदम बहकते रहे, और आंबेडकर सावधान करते रहे। स्वेज नहर के निर्माण से भारत और यूरोप के बीच हजारों मील की दूरी घट गई। नेहरू के परम मित्र और मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री परिवहन के इस मार्ग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। विवाद बढ़ने पर अमरीका, इंग्लैण्ड और फ्रांस ने मिस्र पर हमला बोल दिया। नेहरू नासिर के साथ जा खड़े हुए। बाबासाहेब ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि भारत के विदेश व्यापार में इतना महत्व रखने वाली स्वेज नहर, किसी एक देश की नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में होनी चाहिए। उनका कहना था कि कल यदि मिस्र और भारत में शत्रुता हो जाती है तब भारत के व्यापार हितों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। कम्युनिज्म के अर्थशास्त्र को उन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया परन्तु वामपंथियों की समाज विभाजनकारी और राष्ट्रघाती नीतियों के कारण बाबासाहेब उस ओर विशेष सतर्कता के हिमायती थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि वंचित वर्ग की समस्याओं को सुलझाने के नाम पर वामपंथी उन्हें अपनी हिंसक क्रांति का चारा बना सकते हैं। इस बारे में उनकी सावधानी का पता उनके इस वाक्य से चलता है कि ‘वंचित हिन्दू समाज और कम्युनिज्म के बीच में आंबेडकर बाधा हैं।’ संभवत: यह भी एक कारण था कि बौद्घ धम्म की शरण गहकर उन्होंने सामाजिक न्याय की लड़ाई को आध्यात्मिकता की शक्ति प्रदान की और उसके पदार्थवादी कम्युनिस्ट सोच की ओर जाने की संभावना ही समाप्त कर दी।1948 से 1951 और 1951 से 1954 तक चले सत्रों में भारतीय संसद में हिंदू लॉ कमेटी की रपट पर चर्चा हुई। हिन्दू कोड बिल लागू हुआ जिसमें पुराने समय से चले आ रहे तथा पूर्ववर्ती ब्रिटिश शासन द्वारा मान्यता प्राप्त हिंदू परिवार कानून में मूलभूत परिवर्तन किए गए। लेकिन जब शरीयत आधारित और ब्रिटिश शासन द्वारा गढ़े गए मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी ऐसे ही बदलावों का विषय उठा तो मुस्लिम प्रतिनिधियों ने आसमान सिर पर उठा लिया।
              एक देश में दो कानून, एक के लिए एक छड़ी और दूसरे के लिए दूसरी, इस व्यवस्था का डॉ़ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, आचार्य कृपलानी और डॉ़ आंबेडकर जैसे राष्ट्रवादियों ने कड़ा विरोध किया। मुस्लिम तुष्टिकरण की इस नेहरूवादी नीति पर सवाल खड़ा करते हुए आंबेडकर ने कहा- ‘मैं व्यक्तिगत रूप से यह समझने में असमर्थ हूं कि मज़हब को इतनी विस्तृत अमलदारी क्यों दी जानी चाहिए कि वह सारे जीवन को ही ढक ले और विधायिका को धरातल पर क्रियान्वित होने से रोक दे। आखिरकार हमें (तत्कालीन संसद) यह (कानून बनाने की) छूट क्यों मिली है? हमें यह छूट मिली है अपने सामाजिक तंत्र की असमानताओं और भेद-भावों को दूर करने के लिए, जो हमारे मूलभूत अधिकारों की राह में रोड़ा बने हुए हैं।’ समानता का आह्वान करती ये आवाज अनसुनी रह गई। समानता और पंथ निरपेक्षता की संवैधानिक घोषणा के बाद सामाजिक असमानता और मूलभूत अधिकारों के हनन को कानूनी मान्यता देते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ को यथावत् रखा गया और समान नागरिक संहिता के संकल्प को खंडित कर दिया गया। आने वाले दशकों में लाखों शाहबानो और इमरानाओं ने इस पीड़ा को भुगता। आज भी भुगत रही हैं।जीवनभर डॉ़ आंबेडकर विशुद्घ राष्ट्रवादी एवं अंत:करण से पूर्ण मानवतावादी रहे। देशहित के लिए उन्हें अप्रिय बात बोलने से भी कभी परहेज नहीं रहा। समान नागरिक संहिता की पैरवी के पीछे जहां एक ओर समाज के दोषों के निवारण की आकांक्षा थी, वहीं इस्लामी कट्टरपंथ की रोकथाम और अल्पसंख्यकवाद की विषबेल को प्रारंभ में ही खत्म कर देने की उनकी मंशा छिपी थी।
               उनकी इस सोच की झलक देती ‘बहिष्कृत भारत’ के लिए लिखी गई ये पंक्तियां हैं- ‘स्वतंत्र हिंदुस्थान पर यदि तुर्की, परशिया अथवा अफगानिस्तान इन तीन मुस्लिम राष्ट्रों में से कोई हमला करता है, तो उस स्थिति में सभी लोग एकजुट होकर इसका मुकाबला करेंगे, इसकी क्या कोई गारंटी दे सकता है? हम तो नहीं दे सकते। हिंदुस्थान के मुस्लिमों का इस्लामी राष्ट्रों के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है। यह आकर्षण इतना बेशुमार बढ़ चुका है कि इस्लामी संस्कृति का प्रसार कर मुस्लिम राष्ट्रों का संघ बनाकर अधिकाधिक काफिर देशों को उसके शासन में लाने का उनका लक्ष्य बन चुका है। इन विचारों से प्रभावित होने के कारण उनके पैर हिंदुस्थान में और आंखें तुर्कस्थान या अफगानिस्तान की ओर होती हैं। हिंदुस्थान अपना देश है, इसका उन्हें गर्व नहीं हंै और उनके निकटवर्ती हिंदू बंधुओं के प्रति उनका बिल्कुल भी अपनापन नहीं है।’ इन पंक्तियों से पता चलता है कि उस समय देश में किस प्रकार का वातावरण बन रहा था।विश्वभर में घट रही घटनाओं का डॉ़ आंबेडकर निकटता से अध्ययन कर रहे थे। यह वह काल था जब ब्रिटिश शासक अफगानिस्तान और तुर्की में मुस्लिम खलीफाओं और सुल्तानों के विरुद्ध लड़ रहे थे। प्रथम विश्वयुद्घ के पूर्वार्द्ध में तुर्की की इस्लामी खिलाफत ने 15 लाख आर्मेनियाई ईसाइयों को गैर-मुस्लिम होने के अपराध में मौत के घाट उतार दिया था। इस क्रूर और निरंकुश खिलाफत का जब तुर्की के ही प्रगतिशील युवकों ने तख्ता उलट दिया तो इस तख्तापलट के विरोध में भारत में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ। साम्राज्यवाद के विरोध के नाम पर अखिल इस्लामवाद और अल्पसंख्यकवाद बनाम बहुसंख्यकवाद की नींव डाली गई। और देश में सामाजिक सद्भाव की जमीन पर स्थायी दरारें पैदा कर दी गईं।
            उपनिवेशवाद से लड़ाई के नाम पर मजहबी कट्टरवाद की खेती के घातक परिणामों के बारे में डॉ़ आंबेडकर ने कहा- ‘सामाजिक क्रांति करने वाले तुर्कस्थान के कमाल पाशा के बारे में मुझे बहुत आदर व अपनापन लगता है, परंतु हिन्दी मुसलमानों मोहम्मद शौकत अली जैसे देशभक्त व राष्ट्रीय मुसलमानों को कमाल पाशा व अमानुल्ला पसंद नहीं हैं; क्योंकि वे समाज सुधारक हैं, और भारतीय मुसलमानों की मजहबी दृष्टि को समाज सुधार महापाप लगते हैं।’ मुस्लिम लीग व अंग्रेजों द्वारा भारतीय मुस्लिमों को ‘अजेय वैश्विक इस्लामिक खिलाफत कायम’ करने के लिए फुसलाया जा रहा था। कांग्रेस भी दिन पर दिन इस जाल में फंसती जा रही थी। डॉ़ आंबेडकर ने चेताते हुए कहा था- ‘इस्लामी भाईचारा विश्वव्यापी भाईचारा नहीं है। वह मुसलमानों का, मुसलमानों को लेकर ही है। उनमें एक बंधुत्व है, लेकिन उसका उपयोग उनकी एकता तक ही सीमित है। जो उसके बाहर हैं उनके लिए उनमें घृणा व शत्रुत्व के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को कभी भारत को अपनी मातृभूमि तथा हिंदू को अपने सगे के रूप में मान्यता नहीं दे सकता। मौलाना मोहम्मद अली एक महान भारतीय व सच्चे मुसलमान थे। इसीलिए संभवत: उन्होंने स्वयं को भारत की अपेक्षा यरुशलम की भूमि में गाड़ा जाना पसंद किया।’ चेतावनी अनसुनी रह गईं। वषोंर् पहले से विभाजन की जो खाई दिखाई दे रही थी, तत्कालीन नेतृत्व चाहे अनचाहे उसी ओर खिंचता चला गया। बंटवारा अपरिहार्य हो गया। तो बाबासाहेब ने हिंदू समाज को एक बार फिर चेताया- ‘मैं पाकिस्तान में फंसे वंचित समाज से कहना चाहता हूं कि उन्हें जो मिले उस मार्ग व साधन से हिन्दुस्थान आ जाना चाहिए। दूसरी एक बात और कहना है कि पाकिस्तान व हैदराबाद की निजामी रियासत के मुसलमानों अथवा मुस्लिम लीग पर विश्वास रखने से वंचित समाज का नाश होगा।
              वंचित समाज में एक बुरी बात घर कर गई है कि वह यह मानने लगा है कि हिन्दू समाज अपना तिरस्कार करता है, इस कारण मुसलमान अपना मित्र है। पर यह आदत अत्यंत घातक है। जिन्हें जोर जबरदस्ती से पाकिस्तान अथवा हैदराबाद में इस्लाम की दीक्षा दी गई है, उन्हें मैं यह आश्वासन देता हूं कि कन्वर्जन करने के पूर्व उन्हें जो व्यवहार मिलता था। उसी प्रकार की बंधुत्च की भावना का व्यवहार अपने धर्म में वापस लौटने पर मिलेगा। हिन्दुओं ने उन्हें कितना भी कष्ट दिया तब भी अपना मन कलुषित नहीं करना चाहिए। हैदराबाद के वंचित वर्ग ने निजाम, जो प्रत्यक्ष में हिन्दुस्थान का शत्रु है, का पक्ष लेकर अपने समाज के मुंह पर कालिख नहीं पोतनी चाहिए।’ विभाजन के पश्चात् लाखों वंचित हिंदू परिवार पाकिस्तान में ही रह गए। तब से लेकर आज तक उनका नस्लीय संहार जारी है। वे मुस्लिम जमीनदारों के यहां बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। पाकिस्तान में लगभग रोज किसी न किसी हिन्दू लड़की का अपहरण, बलात्कार और जबरन निकाह की घटनाएं घट रही हैं।अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में डॉ़ आंबेडकर व्यग्र थे। देह छोड़ने के पहले वे वंचित हिंदू समाज को एक दिशा देना चाहते थे। आखिरकार उन्होंने नई उपासना पद्घति अपनाने का निश्चय किया। उनके पीछे आने वाले लाखों अनुयायियों का अनुमान कर ईसाई और मुस्लिम मिशनरियों की कन्वर्जन की भूख भड़क उठी। ईसाई मिशनरी सदियों से भारतीय समाज की देहरी पर सिर पटककर भी कुछ खास हासिल न कर सके थे। दूसरी तरफ इस्लाम के ठेकेदारों को भी इस संभावित पुरस्कार से बड़ी आशाएं लग गई थीं। बाबासाहेब के जीवनी लेखकों धनंजय कीर और खैरमोड़े ने विस्तार से बताया है कि कैसे उस समय हैदराबाद के निज़ाम, आगा खां से लेकर ईसाई मिशनरी तक सभी बाबासाहेब की राह में पलक पांवड़े बिछाने को तैयार थे लेकिन इस बारे में बाबासाहेब की सोच बिल्कुल साफ थी। उन्होंने कहा- ‘अस्पृश्यों के कन्वर्जन के कारण सर्वसाधारण से देश पर क्या परिणाम होगा, यह ध्यान में रखना चाहिए। यदि ये लोग मुसलमान अथवा ईसाई पंथ में जाते हैं तो अस्पृश्य लोग अराष्ट्रीय हो जाएंगे। यदि वे मुसलमान होते हैं तो मुसलमानों की संख्या दुगुनी हो जाएगी व तब मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ जाएगा। यदि ये लोग ईसाई होते हैं तो ईसाइयों की संख्या 5-6 करोड़ हो जाएगी और उससे इस देश पर ब्रिटिश सत्ता की पकड़ मजबूत होने में सहायता होगी।’ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे सामाजिक न्याय के आसमानी दावों की कलई खोलते हुए उन्होंने कहा ईसाइयत ग्रहण करने से उनके आंदोलन का उद्देश्य साध्य नहीं होगा।
            अस्पृश्य समाज को भेद-भाव की मनोवृत्ति नष्ट करनी है। ईसाई हो जाने से यह पद्घति एवं मनोवृत्ति नष्ट नहीं होती। हिंदू समाज की तरह ईसाई समाज भी जाति ग्रस्त है।बौद्घ धम्म को स्वीकार करने के पीछे का कारण बताते हुए वे कहते हैं-‘एक बार मैं अस्पृश्यों के बारे में गांधीजी से चर्चा कर रहा था। तब मैंने कहा था कि ‘अस्पृश्यता के सवाल पर मेरे आप से भेद हैं, फिर भी जब अवसर आएगा, तब मैं उस मार्ग को स्वीकार करूंगा जिससे इस देश को कम से कम धक्का लगे। इसलिए बौद्घ धर्म स्वीकार कर इस देश का अधिकतम हित साध रहा हूं, क्योंकि बौद्घ धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है, मैंने इस बात की सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परंपरा को धक्का न लगे।’बुद्घ के चरणों में बैठने के पश्चात् उन्होंने जो भाषण दिया उसमें हिंदू संस्कृति के प्रति उनकी संकल्पना के दर्शन होते हैं। उन्होंने कहा- ‘अंतत: सारी जिम्मेदारी आपकी ही है। मैंने धर्मान्तरण करने का निश्चय किया है। मैं आपके धर्म से बाहर हो गया हूं। फिर भी आपकी सारी हलचलों का सक्रिय सहानुभूति से निरीक्षण करता रहूंगा व आवश्यकता पड़ने पर सहायता भी करता रहूंगा। हिन्दू संगठन राष्ट्रीय कार्य है, वह स्वराज्य से भी अधिक महत्व का है। स्वराज्य का संरक्षण नहीं किया तो क्या उपयोग? स्वराज्य के रक्षण से भी स्वराज्य के हिन्दुओं का संरक्षण करना अधिक महत्व का है। हिन्दुओं में सामर्थ्य नहीं होगा तो स्वराज्य का रूपांतर दासता में हो जाएगा। तब मेरी राम राम! आपको यश प्राप्त हो, इस निमित्त मेरी शुभेच्छा।’डॉ. आंबेडकर की लेखनी सदा देश की समस्याओं के समाधान ढूंढती रही। जो अखबार उन्होंने निकाले वे सब समाज केंद्रित थे। जो पुस्तकें उन्होंने लिखीं वह प्राय: राष्ट्रीय प्रश्नों पर उनके मंथन का निचोड़ हैं। देश विभाजन पर लिखी उनकी किताब उस समय के राष्ट्रीय परिदृश्य का चित्रण करती है साथ ही अतीत में गोता लगाकर इतिहास की सीख को भी सामने रखती है।
              वहीं दूसरी ओर उनकी रचना ‘शूद्र कौन थे’ हिन्दू समाज को उसकी जड़ां की गहराई तक ले जाकर वहां से बह रही समरसता की धारा से परिचित करवाती है। इस पुस्तक में बाबासाहेब ने ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा फैलाये गए इस झूठ कि ‘आर्य भारत में बाहर से आए हुए हमलावर थे’ का मुंहतोड़ उत्तर दिया है और शास्त्र प्रमाण से ये सिद्घ किया है कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। आर्य गुणसूचक शब्द है जाति सूचक कदापि नहीं है। और वेदों में जिन्हें शूद्र कहा गया है वे तत्कालीन समाज का अत्यंत महत्वपूर्ण, सम्माननीय और समृद्घ घटक थे।इन सारी बातों पर निगाह डालते हैं तो ध्यान में आता है कि बाबासाहेब आंबेडकर का सारा जीवन राष्ट्रवाद की अनथक गाथा है। सारा जीवन वे राष्ट्र के लिए लड़ते रहे। उन्होंने राष्ट्र की ये लड़ाई सामाजिक स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर, वैचारिक स्तर पर और सांस्कृतिक स्तर पर लड़ी। इस मंथन में से जो विष निकला उसे वे चुपचाप पी गए, और जो अमृत निकला उसे समाज में बांट दिया। किसी अवसर पर उन्होंने कहा था कि ‘मेरी आलोचना में यह कहा जाता है कि मैं हिन्दू धर्म का शत्रु हूं, विध्वंसक हूं। लेकिन एक दिन ऐसा आयेगा, जब लोग यह अनुभव करेंगे कि मैं हिन्दू समाज का उपकारकर्ता हूं और तब वे मुझे धन्यवाद देंगे।’ वह दिन आ गया है।‘सिफारिश नहीं करूंगा’बाबासाहेब उन दिनों भारत के कानून मंत्री थे। उनका बेटा यशवंत, जिन्हें भैयासाहब के नाम से स्मरण किया जाता है, मुंबई से दो उद्योगपतियों को लेकर दिल्ली उनसे मिलने पहुंचा। उद्योगपतियों के निजी कार्य के लिए यशवंत अपने पिता की सिफारिश चाहता था। उसकी बात सुनकर बाबासाहेब फट पड़े। सबके सामने ही निर्ममता के साथ फटकारते हुए उन्होंने कहा -‘मूर्ख!तूने सोचा भी कैसे कि मैं तेरे कहने से किसी के लिए सिफारिश करूंगा? मैं यहां तेरा बाप नहीं, भारत का विधिमंत्री हूं। बाप हूं बम्बई के राजगृह (बाबासाहेब के निवास का नाम) में। बिना देर किये निकल जा मेरे कमरे से।’ यशवंत को काटो तो खून नहीं। वह अपना सा मुंह लेकर उद्योगपतियों के साथ वापस लौट गया। 
          इस घटना के बाद बाप-बेटे के रिश्ते सदा के लिए ठंडे पड़ गए। यहां यह स्मरण रहे कि यशवंत बाबासाहेब की पांच संतानों में से एकमात्र जीवित बचा पुत्र था। डॉ. आंबेडकर के तीन पुत्र और एक पुत्री छुटपन में ही काल-कवलित हो गए थे। स्वाभाविक ही बाबासाहेब में उसके प्रति पर्याप्त मोह रहा होगा। पर उनकी कर्तव्य-परायणता अधिक कठोर थी।‘गुरुता का वंदन’यह सब लोग जानते हैं कि भीमराव को बाल्यकाल में आंबेडकर उपनाम उनके एक ब्राह्मण अध्यापक ने दिया था ताकि बालक को सामाजिक भेदभाव अधिक न झेलना पड़े। इसीलिए काफी लोग उन्हें बहुत समय तक ब्राह्मण ही समझते रहे। बाबासाहेब ने जब बड़े होकर अत्यधिक सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल कर ली, उसके बाद की घटना है। बाबासाहेब मुंबई में दामोदर हॉल के निकट स्थित अपने कार्यालय में काफी अनुयाइयों के साथ बैठे थे। तभी उन आंबेडकर गुरूजी का वहां आगमन हो गया। वे वयोवृद्घ हो चुके थे। पर बाबासाहेब उनको देखते ही पहचान गए। भाव-विह्वल होकर उन्होंने भूमि पर लेटकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। यही नहीं, वस्त्र आदि देकर उनका सम्मान भी किया। आंबेडकर गुरूजी अपने इस दिग्विजयी शिष्य की शिष्टता देखकर भाव-विभोर हो गए।

संघ की एक और कृति विचारक चिंतक बलराज मधोक

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 मधोक जी -----!
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गिर गया !
एक और वट वृक्ष !

अस्त हो गया !
राष्ट्रसाधना का एक और सितारा !

और यूँ खो दिया ...
भारत माता ने एक और लाल जिसने आजन्म देशभक्ति की अलख जगाये रखी।

एक एक पल जिंदगी का, शरीर का एक एक कतरा देश के लिए ।
सोना.. जागना और श्वांस लेना हर पल देश, भारत और इसके परम् वैभव की साधना में।

अंग्रेजों के दमन चक्र से लेकर इंदिरा की तानाशाही तक !
पकिस्तान से कश्मीर को बचाने से लेकर भारतीय राजनीति के चीरहरण को रोकने तक.....!

तुम टकराते रहे अत्याचारियों से, सत्ता के सौदागरों से  ..!

और हर बार तुम बचा लाये भारत की लाज... भारतीयों का मान ....और उससे भी बढ़कर वह आदर्श जिसे जान कर हर देशभक्त एक बार यह कहने को मजबूर हो जायेगा की काश !!

मैं भी बलराज मधोक हो पाता !

25 फरवरी 1920 को अखण्ड भारत के गिलगित में तुम्ही तो जन्मे थे बलराज !

जिसने पुस्तैनी वैभव विलास को छोड़कर देश की सेवा में मिट जाने का संकल्प लिया था। ठीक 18 साल की उम्र में जीवन की सुनहरी गलियों को ठुकराकर तुमने त्याग तपस्या की कमर कसी और संघ प्रचारक के रूप में कंटकाकीर्ण मार्ग अपना लिया।

इतिहास पर थोड़ी पकड़ रखने वाले बताएँगे की बलराज मधोक न होते तो हम पूरा कश्मीर पाकिस्तान को गवां बैठे होते ।

यह विधि का विधान ही था की विभाजन के 08 साल पहले ही बलराज मधोक आप संघ प्रचारक रूप में कश्मीर में सक्रीय हो गये थे। यदि आपके नेतृत्व में 200 संघ स्वयंसेवक श्रीनगर नहीं पहुंचते तो कुछ गद्दार कश्मीरियों की पाकिस्तानियों के साथ साजिश सफल हो जाती और हम पूरा कश्मीर गवां बैठते।

विभाजन के बाद पाकिस्तान से पीठ में घोंपा गया खंजर लेकर लौटे लाखों हिन्दुवों के लिए संघ क्या है यह वह और उनकी पुश्तें जानती होंगी।

बलराज केवल यही योगदान इतना बड़ा है जिस पर भारत का जर्रा- जर्रा आपका ऋणी रहेगा।

लेकिन आप तो भारत भक्ति के दुसरे दधीचि थे।
खुद को जलाकर औरों को रौशनी देने वाले मशाल !!
सिधान्तो पर अडिग चट्टान और अन्याय के खिलाफ लड़ने वाली तलवार।

प्रजा परिषद् (कश्मीर), भारतीय जनसंघ, ABVP से लेकर अखिल भारतीय जनसंघ तक आपने जितने भी पौधे लगाए वे सारे वट वृक्ष बनकर भारत की सेवा कर रहे हैं।

धारा 370 पर आपकी मंशा से घबराकर शेख अब्दुल्ला ने आपको J&k से निकाल दिया तो आपने दिल्ली में अपनी देश सेवा की धूनी जलाये रखी।

नई सत्ता को आवारा होने से बचाने के लिए आपने राजनीति में पूरी दखल रखी। 1961 में दिल्ली के सांसद बने तो यह आप ही थे जो मदान्ध नेहरू को "vacate the seat !"कहने की हिम्मत रखते थे।

यह आपका नेतृत्व ही था जिसने जनसंघ को 1967 चुनाओं में 35 सीटें जीता दीं।

वसूलों के लिए किसी से भी टकराये, भले आपको इमरजेंसी में 18 महीने जेल काटनी पड़ी हो।

सिद्धांतों पर आपने अपनी पार्टी को भी नहीं बख्शा और वाजपेयी जी भी का विरोध किया। लाल कृष्ण आडवाणी जिन्होंने आपको पार्टी से निकाला था, आज आपके अंतिम दर्शन के वक्त आपसे उसके लिए क्षमा माँगते रहे होंगे।

बलराज जी आपकी देह हमारे बीच नहीं रहेगी लेकिन आपके आदर्श, आपकी राष्ट्र आराधना और आपका सिद्धान्तमय जीवन सदा सर्वदा भारत और भारतीयों को राह दिखाते रहेंगे।

"कश्मीर, जीत या हार और कश्मीर जीत में हार"जैसी आपकी किताबें भारतीय इतिहास में "केस स्टडी"के रूप में हर काल में प्रासांगिक रहेंगी।

अंत में इतना ही कहूँगा मधोक जी आपने यह शरीर त्यागा है तो दूसरा शरीर भी भारत में ही धरना।
ताकि यह देश पुनः बलराज बन सके, भारत माँ पुनः परम वैभव को प्राप्त हो सके....जो आपका अंतिम सपना था ... और करोड़ों भारत भक्तों का भी।

                              भारत माता की जय !

पांच हज़ार वर्ष पुराना राष्ट्र चिंतन (गीत )----!

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पाँच हज़ार वर्ष पहले का राष्ट्रगौरव गान-------!
हमारे यहाँ कुछ तथाकथित बिद्धिजीवी तथा वामपंथियों की अवधारणा है की भारत एक राष्ट्र था ही नहीं न ही उसकी कोई राष्ट्रीयता ही थी उन्हें शायद यह ध्यान में नहीं की ऋग्वेद में जो लाखों वर्ष पहले इस धरती पर आया जो अपौरुषेय है वो लिखता है "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम् पुरोहिता "और उपनिषद महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में भी देश भक्ति और राष्ट्रीयता का वर्णन है। लेकिन हमारे राष्ट्रीय अभ्युत्थान के लिए महाभारत का विशेष स्थान यह है कि वह प्राचीन भूगोल, समाजशास्त्र, शासन सम्बन्धी संस्था, निति और धर्म के आदर्शों की खान है. वेदव्यास जिस भारत राष्ट्र की उपासना करते थे, भविष्य का हिन्दू उसका स्वप्ना देखेगा, उनका निम्नलिखित राष्ट्रगीत हमारे इतिहास का सनातन मंगलाचरण होगा । 
                 अत्र  ते  कीर्तयिष्यामि  वर्ष भारत  भारतम ।
                 प्रियमिन्द्रस्य  देवस्य   मनोर्वैवस्वतस्य  च ।।      
                 पृथोस्तु राजंवैन्यस्य तथेक्ष्वाकॉमहातमनः ।
                 ऋषभस्य तथैलस्य  नृगस्य     नृपतेस्तथा ।। 
                 कुशिकस्य च   दुर्धष  गधेश्चैव   महात्मनः । 
                 सोमकस्य च  दुर्धर्ष   दिलीपस्य    तथैव च ।।
                 यंयेषां च  महाराज  क्षत्रियानां   बलीयसाम । 
                 सर्वेषामेव  राजेंद्र  प्रियं   भारत     भारतम ।। 
भावार्थ -----------------------
      आओ, हे भारत, अब मैं तुम्हे भारत देश का कीर्तिगान सुनाता हूँ, वह भारत जो इंद्र देव को प्रिय है, जो मनु, वैवस्य, आदिराज पृथु, वैन्यऔर महात्मा इक्ष्वाकु को प्यारा था, जो भारत ययाति, अम्बरीष, नहुष, मुचुकुन्द और औशीनर शिवि को प्रिय था, ऋषभ, एल और नृग जिस भारत को प्यार करते थे, और जो भारत कुशिक, गाधि, सोमक, दिलीप और अनेकानेक वीर्यशाली क्षत्रीय सम्राटों को प्यारा था, हे नरेंद्र, उस दिव्य देश की कीर्ति कथा मैं तुम्हे सुनाता हूँ। 
( महाभारत शांति पर्व )                

वेदांत की माता है "सदानीरा ( गडकी)".......

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सरस्वती के समान ही सदानीरा का महत्व है-----!
          भारतवर्ष जहाँ पर्वत पहाड़ों प्रकृति का महत्व है वहीँ नदियों के महत्व को काम नहीं किया जा सकता वे केवल हमें पनि यानि जीवन ही नहीं बल्कि हमारी संस्कृतियों का निर्माण इन्हीं नदियों के किनारे हुआ जहाँ गंगा जी पवित्र मानी जाती हैं वहीँ नर्मदा जी जेष्ठ हैं और पुरे दक्षिण की जीवन धारा भी हैं, इस नदी का नाम कई बार वेदों में आया है वहीँ बहुत सारे ऋषियों की तपस्थली होने का नर्मदा जी को गौरव प्राप्त है, यदि यह कहा जाय की भारतीय संस्कृति का विकाश भारतीय नदियों के किनारे हुआ तो यह अतिसयोक्ति नहीं होगा, इसी कारन भारत में नदियां पूज्य हैं किसी न किसी बहाने नदी तट पर स्नान मेला, कल्पवास इत्यादि मुक्ति मार्ग तलसा जाता है, भारतीय संस्कृति और विकाश में जिनकी मुख्या भूमिका है उसे हम कुम्भ कहते हैं, भारत में कुम्भ यानी नित्य नूतन समाज का निर्माण जिसमे कोई रूढ़ि नहीं इन्हीं विकाश के क्रम में, धर्म रक्षा व एकता क्रम में शैव, वैष्णव, शाक्त, गोरक्षपरंपरा, तथा सैकणों संप्रदाय जिनकी अपनी-अपनी विचार धारा है जिसे ऋग्वेद में कहा गया की "मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ने "प्रत्येक मस्तिष्क में अलग-अलग विचार हो सकते है लेकिन वे सभी वेदोक्ति हैं और वे सभी मोक्ष का मार्ग ही है यह विश्व की अद्भुत परंपरा है दक्षिण के नासिक में गोदावरी तट, उज्जैन में छिप्रा के तट पर, प्रयाग में गंगा और यमुना जी के संगम पर तथा हरिद्वार में गंगा जी के तट पर कुम्भ लगता है, कुम्भ की परंपरा जहाँ करोणों हिन्दू आते हैं सभी मत, पंथ जाती बिरादरी से ऊपर उठकर बिना किसी भेद भाव के सभी मुक्ति की कामना करते हैं यह वास्तव में भारतीय राष्ट्र का स्वरुप ही है जो मत, पंथ, संप्रदाय इस कुम्भ में शामिल नहीं होते ये भारतीय राष्ट्र उनके इंतजार कर रहा है।
          मैं चर्चा कर रहा था अपने जीवन दायिनी नदियों की जो हमें केवल जीवन ही नहीं बल्कि हमारी संस्कृतियों का निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका है हम सभी को पता है कि वेद अपौरुषेय है जिसे सर्व प्रथम ब्रम्हा जी के कंठ में ईश्वर ने प्रकट किया ब्रम्हाजी ने आदित्य, अंगिरा, वायु और अग्नि जैसे ऋषियों को सरस्वती नदी के किनारे यह वेदों का ज्ञान दिया इन ऋषियों ने विश्वामित्र, अगस्त, लोपामुद्रा, वशिष्ठ, भार्गव, गर्ग व जमदग्नि जैसे ऋषियों को दिया यह श्रेया सरस्वती नदी को ही प्राप्त है जिसके किनारे किनारे वैदिक गुरुकुल खोलकर वेदों कि शिक्षा मानव मात्र को दिया इसी नदी के किनारे ही वास्तव मानव संस्कृति का विकाश हुआ उसी समय आदि राजा पृथु ने गो रूपी पृथ्बी कि रक्षा की, तथा गांव, नगरों की रचना की, उन्होंने ही कृषि करना सिखाया इसी कारन उन्हें भगवन विष्णु का चौबीसवाँ अवतार माना जाता है यदि यह कहा जाय की सम्पूर्ण भारत ही नहीं विश्व में मानवता का विकाश इस सरस्वती नदी के किनारे रहने वाले ऋषि संत महापुरुषों ने किया तो यह सत्य ही है आज भी सारस्वत ब्राह्मण जिन्हे तीर्थ पुरोहित, जागा, भाट ऐसी सैट जातियां है जो सरस्वती नदी के किनारे रहते थे भारतीय संस्कृति के रक्षार्थ वे भारत के सभी तीर्थों, में पाए जाते हैं इस कारन सरस्वती नदी को वेदों की माता का होने का गौरव प्राप्त है !
            गंगाजी और गंडक के संगम पर हरिहर नाथ मंदिर है जिसे शैव व वैष्णव दोनों का मिलन स्थल भी कहा जाता है जो भारत वर्ष में सात पवित्र क्षेत्र माने जाते हैं उसमे से हरिहर क्षेत्र एक है, वैष्णव जगत में इसकी बड़ी मान्यता है इसी गण्डकी (नारायणी ) में सालिग्राम भगवान पाए जाते हैं आदि जगतगुरु रामानुजाचार्य से लेकर रामानन्द स्वामी, चैतन्य महाप्रभु, शंकरदेव, गुजरात के स्वामी सहजानंद (स्वामीनारायण परंपरा) सहित हज़ारों संतों ने इसी नदी के किनारे-किनारे मुक्तिनाथ तक की यात्रा की आज भी हज़ारों वैष्णव संत इसी नदी के किनारे मुक्तिनाथ जाते हैं, हमारी मुक्तिनाथ यात्रा चैत्र एकादशी को निकलती है जो इसी नदी के किनारे-किनारे मुक्तिनाथ तक जाती है मैं सोच रहा था की इसकी महिमा केवल ये "सालिग्राम भगवान"को जन्म देने वाली माता है ऐसा नहीं कुछ और भी है! हम सभी को ज्ञात है की यही भूमि है जहाँ क्षीर सागर था जहाँ भगवन विष्णु निवास किया करते थे उसका प्रणाम भी है यहीं मंदार पर्वत'है यहीं 'नाग वासुकि'भी हैं वास्तव में हिमालय सहित यह भाग क्षीर सागर था यहीं गज-ग्राह का युद्ध शुरू हुआ था भगवान यहीं प्रकट हुए इसी कारन इसे हरिपुर भी कहते हैं, लेकिन इस 'ममता मई'नदी की महिमा और भी है वास्तविकता यह है की इसी नदी के किनारे मिथिला राज्य शुरू होता है सरस्वती नदी के वासी ऋषि याज्ञवल्क्य आर्य संस्कृति के प्रचार हेतु सदानीरा (गंडक) तक की यात्रा की और यहीं के होकर रह गए वेदांत यानी वेदों का सार, वास्तविकता यह है की यहीं पर उपनिषदों की रचना हुई यहीं राजा जनक की राजधानी थी यहीं जनक के पुरोहितों से यज्ञबल्क्य का संवाद हुआ यही वह भूमि है जहाँ जनक ने अष्टावक्र को ज्ञान दिया गार्गी के प्रश्नों और ऋषि के उत्तरों ने उपनिषदों का निर्माण किया उपनिषद कर्मकांड नहीं स्वीकारता बल्कि ज्ञान कर्म को स्वीकार करता है जिसका निर्माण वैदिक ऋषि गार्गी, कात्यायनी, अष्टावक्र और ऋषि याज्ञवल्क्य जनक के संवादों से हुआ, यदि यह कहा जय कि वेदों के ज्ञान मार्ग का निर्माण नारायणी नदी के किनारे हुआ तो इसमें कोई अतिसयोक्ति नहीं है केवल वेदांत यानी उपनिषद ही नहीं तो हिन्दू संस्कृति यज्ञ संस्कृति के विकाश में इसका महत्वपूर्ण योगदान है, इसी नदी के किनारे राजा जनक (विदेह) ने मनुष्य जाती को हल चलाना, कृषि करना सिखाया जंगल से गांव की तरफ, तथा नगरों की ओर लाने का काम किया इसी नदी के किनारे इसी राजा ने हमारी संस्कृति का निर्माण किया, आदि राजा पृथु के पश्चात राजा जनक ही ऐसे राजा थे जिन्होंने गांव का निर्माण कराया जहाँ चाचा-चाची, काका-काकी, भाई- बहन, फुआ- फूफा, आजी, मौसी- मौसा ऐसे कितने रिस्तों गांव की सभी लड़कियां बहन सभी माताएं चाची व काकी पूरा गांव एक परिवार के सामान था का निर्माण किया इस महान संस्कृति का निर्माण में इस नदी 'सदानीरा'की महत्व पूर्ण भूमिका है इस कारन इसे वेदांत के माता का भी अधिकार है ।
           एक तरफ जहाँ सरस्वती नदी को लाखों करोणों वर्ष पहले ब्रम्हा जी के मानस पुत्रों तथा वैदिक मंत्र द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र, वशिष्ठ, ऋषि अगस्त, लोपामुद्रा, लोमहर्षिणी, कवष ऐलूष, आचार्य भृगु, ऋषि जमदग्नि तथा परसुराम, सुनःशेप जैसे ऋषियों का पालन पोषण करने, वैदिक गुरुकुल इसी नदी के किनारे स्थापित कर वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार करने का श्रेय 'माता सरस्वती'को जाता है तो वहीँ हज़ारों वर्ष पहले सदानीरा के किनारे जहाँ वेदांत अथवा उपनिषद के द्रष्टाओं जिन्होंने वेदों का मंथन कर उपनिषदों की रचना की ऐसे ऋषि याज्ञवल्क्य, अष्ट्रावक्र, गार्गी, राजर्षि जनक, कात्यायनी, गौतम, अलारकलाम जैसे ऋषियों का पोषण विकसित करने का श्रेय 'माता सदानीरा'को है, इस कारन इसे वेदांत की माता भी कहा जाता है, जहां गंगाजी मोक्ष दायिनी हैं वहीँ सरस्वती और सदानीरा संस्कृति, सभ्यता तथा आत्मा से परमात्मा से साक्षात्कार दायिनी है ।।        

वट -सावित्री पूजा और पर्यावरण --------!

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नारीत्व के प्रतीक "वट-सावित्री" (वरसाईत) पर्व
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जेष्ठ कृष्ण अमावस्या तिथि को हिन्दू महिलाएं वट सावित्री का व्रत रखती हैं । विशेष कर मिथिला क्षेत्र मे इस पर्व को सुहागिन महिलाएँ अनिवार्य रुप मे मनाती है..मिथिला मे इसे "वरसाईत"पर्व के नाम से जाना जाता है।
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शास्त्रों के अनुसार इस दिन व्रत रखकर वट वृक्ष के नीचे सावित्री, सत्यवान और यमराज की पूजा करने से पति की आयु लंबी होती है और संतान सुख प्राप्त होता है। मान्यता है कि इसी दिन सावित्री ने यमराज के फंदे से अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा की थी।
इस व्रत में सबसे अधिक महत्व चने का है। बिना चने के प्रसाद के यह व्रत अधूरा माना जाता है।
(किस लिए चना है जरूरी?)
सावित्री और सत्यवान की कथा में इस बात का उल्लेख मिलता है कि जब यमराज सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगे तब सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने सावित्री को ऐसा करने से रोकने के लिए तीन वरदान दिये। एक वरदान में सावित्री ने मांगा कि वह सौ पुत्रों की माता बने। यमराज ने ऐसा ही होगा कह दिया। इसके बाद सावित्री ने यमराज से कहा कि मैं पतिव्रता स्त्री हूं और बिना पति के संतान कैसे संभव है।
सावित्री की बात सुनकर यमराज को अपनी भूल समझ में आ गयी कि,वह गलती से सत्यवान के प्राण वापस करने का वरदान दे चुके हैं। इसके बाद यमराज ने चने के रूप में सत्यवान के प्राण सावित्री को सौंप दिये। सावित्री चने को लेकर सत्यवान के शव के पास आयी और चने को मुंह में रखकर सत्यवान के मुंह में फूंक दिया। इससे सत्यवान जीवित हो गया। इसलिए वट सावित्री व्रत में चने का प्रसाद चढ़ाने का नियम है।
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(वट(वर/वरगद) वृक्ष की पुजा क्यों ?)
जब सावित्री पति के प्राण को यमराज के फंसे से छुड़ाने के लिए यमराज के पीछे जा रही थी उस समय वट वृक्ष ने सत्यवान के शव की देख-रेख की थी। पति के प्राण लेकर वापस लौटने पर सावित्री ने वट वृक्ष का आभार व्यक्त करने के लिए उसकी परिक्रमा की इसलिए वट सावित्री व्रत में वृक्ष की परिक्रमा का भी नियम है।
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ऐसे करें वट सावित्री व्रत और पूजन
सुहागन स्त्रियां वट सावित्री व्रत के दिन सोलह श्रृंगार करके सिंदूर, रोली, फूल, अक्षत, चना, फल और मिठाई से सावित्री, सत्यवान और यमराज की पूजा करें। वट वृक्ष की जड़ को दूध और जल से सींचें। इसके बाद कच्चे सूत को हल्दी में रंगकर वट वृक्ष में लपेटते हुए कम से कम तीन बार परिक्रमा करें। वट वृक्ष का पत्ता बालों में लगाएं। पूजा के बाद सावित्री और यमराज से पति की लंबी आयु एवं संतान हेतु प्रार्थना करें। व्रती को दिन में एक बार मीठा भोजना करना चाहिए।
वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। हिन्दू संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।
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उद्देश्य
तिथियों में भिन्नता होते हुए भी व्रत का उद्देश्य एक ही है : सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को आत्मसात करना। कई व्रत विशेषज्ञ यह व्रत ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक करने में भरोसा रखते हैं। इसी तरह शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक भी यह व्रत किया जाता है। विष्णु उपासक इस व्रत को पूर्णिमा को करना ज्यादा हितकर मानते हैं।
वट सावित्री व्रत में 'वट'और 'सावित्री'दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पाराशर मुनि के अनुसार- 'वट मूले तोपवासा'ऐसा कहा गया है। पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही हो और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूपमें विकसित हो गई हो।
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दर्शनिक दृष्टि
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध के प्रतीक के नाते भी स्वीकार किया जाता है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। महिलाएँ व्रत-पूजन कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के आसपास सूत के धागे परिक्रमा के दौरान लपेटती हैं।
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कथा
वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सावित्री हिन्दू संस्कृति में ऐतिहासिक चरित्र माना जाता है। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। कहते हैं कि भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी।
उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा। इसके बाद सावित्रीदेवी ने प्रकट होकर वर दिया कि 'राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी।'सावित्रीदेवी की कृपा से जन्म लेने की वजह से कन्या का नाम सावित्री रखा गया।
कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान थी। योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया।
कहते हैं कि साल्व देश पूर्वी राजस्थान या अलवर अंचल के इर्द-गिर्द था। सत्यवान अल्पायु थे। वे वेद ज्ञाता थे। नारद मुनि ने सावित्री से मिलकर सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी थी परंतु सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया। पति की मृत्यु की तिथि में जब कुछ ही दिन शेष रह गए तब सावित्री ने घोर तपस्या की थी, जिसका फल उन्हें बाद में मिला था।
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उद्देश्य-
पुराण, व्रत व साहित्य में सावित्री की अविस्मरणीय साधना की गई है। सौभाय के लिए किया जाने वाले वट-सावित्री व्रत आदर्श नारीत्व के प्रतीक के नाते स्वीकार किया गया है।
जेष्ठ माह की पूर्णिमा को वट सावित्री के पूजन का विधान है। इस दिन महिलाएँ दीर्घ सुखद वैवाहिक जीवन की कामना से वट वृक्ष की पूजा-अर्चना कर व्रत करती हैं।
लोककथा है कि सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे पड़े अपने मृत पति सत्यवान को यमराज से जीत लिया था। सावित्री के दृढ़ निश्चय व संकल्प की याद में इस दिन महिलाएँ सुबह से स्नान कर नए वस्त्र पहनकर, सोलह श्रृंगार करती हैं। वट वृक्ष की पूजा करने के बाद ही वे जल ग्रहण करती हैं।
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पूजन विधि : -
इस पूजन में स्त्रियाँ चौबीस बरगद फल (आटे या गुड़ के) और चौबीस पूरियाँ अपने आँचल में रखकर बारह पूरी व बारह बरगद वट वृक्ष में चढ़ा देती हैं। वृक्ष में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करती हैं। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वे वृक्ष की बारह परिक्रमा करती हैं। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाती हैं। और सूत तने पर लपेटती जाती हैं।
परिक्रमा पूरी होने के बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनती हैं। फिर बारह तार (धागा) वाली एक माला को वृक्ष पर चढ़ाती हैं और एक को गले में डालती हैं। छः बार माला को वृक्ष से बदलती हैं, बाद में एक माला चढ़ी रहने देती हैं और एक पहन लेती हैं। जब पूजा समाप्त हो जाती है तब स्त्रियाँ ग्यारह चने व वृक्ष की बौड़ी/ वट शुंग (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलती हैं।
इस तरह व्रत समाप्त करती हैं। इसके पीछे यह कथा है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को प्राण दिए, उस समय सत्यवान को पानी पिलाकर सावित्री ने स्वयं वट वृक्ष की बौंडी खाकर पानी पिया था।
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पर्यावरण की दृष्टि से -
इस पुजा के दौरान  वट वृक्ष की रक्षा  के साख साथ एक नयाँ वट का वृक्षारोपन करने की भी परम्परा है , धरती पर हरे-भरे पेड़ रहें तभी तो स्त्री उनकी पूजा कर सकेगी।
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Medical science की दृष्टि से-
Infertility के रोग मे आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग संग्रह मे पुंसवन कर्म (पुत्र,पुत्री प्राप्ती के लिए एक प्रकार की चिकित्सा) मे वट शुंग (कली)को खाने की निर्देश किया गया है..
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वट सावित्री (वरसाईत) पर्व की सभी माता बहनों को शुभकामना ....

NSG और भारत के सेकुलर राजनेता -----!

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         हालाँकि भारत के NSG में सदस्यता मिलने पर अभी सस्पेंस बना हुआ था लेकिन यह मुद्दा नई दुनिया के, बदले हुए नए शक्ति श्रोतो का दस्तावेज अवश्य बन गया है। यहाँ कूटनीति और राष्ट्रीय हितों की नई परिभाषाएँ गढ़ी गई हैं, जिसमें आर्थिक विकास की चाहत, सामरिक लाभ के दहलीज़ को छू रही है।
      भारत की आक्रमकता के कारण, अमेरिका और चीन के बीच हो रहे मनोवैज्ञानिक शक्ति प्रदर्शन ने NSG को एक ऐसा वैश्विक खेल बना दिया है जिसके परिणाम घोषित हो चुके है।
यह वह खेल है जिसमें "भारत की जीत और चीन की हार है।"
भारत का NSG का सदस्य बनने या न बनने से इस पर कोई फर्क नही पड़ने वाला है।
हाँ, न बनने से कुछ वर्षो की दिक्कत और है, लेकिन यह दिक्कत अभी तक हमारे साथ ही थी और भारत उसके बाद भी यहाँ तक पहुँच गया है, इसलिए मायूस मत होइयेगा।अपनी मायूसियत तोड़नी है.... 
तो अपने दिल पर हाथ रखिये...... और- "भारत की शपथ लीजिए"... कि-
"सस्ते के लालच में 1 रुपए की भी चीज़ चीन की नहीं खरीदेंगे।"...
 यह समझ लीजिए आज का जमाना धंदे का है और चीन जानता है कि
भारत में.. एक बड़ी "निर्लज्ज नस्ल"बसती है, जो चीन में निर्मित लक्ष्मी-गणेश पूजते हैं, और चीनी झालरों की रौशनी में दीवाली मना कर "हिन्दू होने पर गर्व"करते हैं.।
चीन का धन्धा भारत में बंद कर दीजिये, चीन कसमसा कर घुटनों के बल आ जाएगा...!
यदि आप इस खुशफहमी में हैं कि सरकार ही यह काम आपके लिए करेगी तो यह खुशफहमी मत पालिएगा...
क्यूंकि-
1992 में राव-मनमोहन की जुगलबंदी के द्वारा हुई WTO और अन्य (GATE) संधियों के कारण मोदी-सरकार चाहकर भी चीनी-माल को रोक नहीं सकती है।
और-
यदि कोई रोक सकता है तो वह है...
 सिर्फ "चीनी सामान की भारत में दम तोड़ती माँग।"
           अब इसके बाद भी आप सरकार पर आस लगाए हैं या अपनी बचत देख रहे हैं..
तो मान लीजिए ---.आप खुद एक स्वार्थी और कमज़र्फ इंसान हैं, जो "राष्ट्रप्रेम"के नाम पर 100  रुपए में बिके हुए भीड़ हैं...------!
भारत जीत गया है... अपने देश को और मजबूत कीजिये...
क्यूँकि-
यह जीत अगले 10 सालों में एक बड़ा टकराव लाने वाली है, जिसके लिए आज से ही आपको मानसिक और आत्मिक रूप से मज़बूत होना होगा।
 परीक्षा की घड़ी कौन देश के साथ --------!
 हम लोगों ने जयचंद और मानसिंह को नहीं देखा लेकिन चीन ने पाकिस्तानी रूपी जो छुरा भारत के हितों पर चलाया है उससे भारत के सेकुलर नेता चाहे कांग्रेस हो अथवा आप पार्टी हो या अन्य सेकुलर दल सभी को जैसे कोई विजय मिल गयी हो वे भारत की पराजय को मोदी जी की पराजय के रूप मे देख रहे हैं वे आज भी यह समझने को तैयार नहीं हैं की यह सब नेहरू जी पापों का परोणाम है टीवी चैनलों पर जिस प्रकार कांग्रेस सांसद आनंद शर्मा और केजरीवाल खुशियाँ मना रहे हैं  ये सेकुलर राजनेता यदि इन्हे देशद्रोही कहा जाय तो उनके अनुकूल बैठता है लालू, नितीश से लेकर सभी वामपंथियों को जैसे कोई मुंह माँगी मुराद मिल गयी हो आखिर मतलब क्या निकलना चाहिए --! उससे यह जाहीर होता है की भारत को किसी विदेशी शत्रु की अवस्यकता नहीं वो तो यहीं मौजूद हैं ।
              भारत की कोई पराजय नहीं है भारत को केवल चीन छोडकर सभी देशों ने समर्थन किया है विश्व मे पहली बार भारत ने अपनी पहचान बनाई है बस केवल हमे चीन के सामानों का बहिसकार करने की अवस्यकता है चीन कोई सम्पन्न देश नहीं वो तो भूखा मारा देश है यदि भारत से चावल नहीं जय तो भूखों मर जाएगा केवल हमे जागरूक होने की जरूरत है।
भारत की सफल कूटनीति चीन अलग-थलग-----!
केजरीवाल जैसे चिट्वाजों से सावधान रहना है, भारत को भले ही यह सफलता नहीं मिली लेकिन भारतीय जनता को जरूर सेकुलर नेताओं को समझने का मौका मिला की वे कितना देश भक्त हैं और नेहरू से लेकर वह परिवार कितना भारत हितैसी है सभी सेकुलर इसको भारत की पराजय मोदी की पराजय के रूप मे देख रहे हैं, लेकिन हमारे देश मे एक राज़ा पृथबिराज चौहान भी था जो शब्द वेधी वाण चलाता था और अंतिम समय उसने मुहम्मद गोरी का उसी से बध किया। चीन के द्वारा भारत की कुटिनीतिक पराजय नहीं चीन भारत से घावड़ाया हुआ है भारत ने हर मोर्चे पर अपनी सफलता जाहीर की है अब भारत का नेतृत्व बौना नहीं है कुछ कर गुजरने की क्षमता रखता है अमेरिका, इंग्लैंड, रुश और चीन सहित देश हमारा लोहा मान रहे हैं एनएसजी मे समर्थन न करना चीन की कमजोरी ही दर्शाता है, खिसयानी बिल्ली खंभा नोचे जैसे हालत चीन की हो गयी है भारत की कुटिनीति ने उसे विश्व समुदाय से अलग-थलग कर दिया है, भारत विश्व की अजेय शक्ति होगा यह भारतीय जनता का विश्वास है और हम विश्व विजेता होंगे --------!  

गुरु गोविंद सिंह के ३५० वें प्रकाश पर्व पर---! हुतात्माओं के प्रेरणा श्रोत गुरु अर्जुनदेव ----!

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जो जाती अपना इतिहास भूल जाती है उसका भविष्य संकट पूर्ण हो जाता है यानी समाप्त हो जाती है -------!
गुरु अर्जन देव जी को मुग़ल शासक जहाँगीर ने गर्म ♨ तवे पर बैठा दिया था और गरम तेल में पका कर हत्या कर दी थी , लेकिन आज के कुछ सिख बंधु ये सब भूल गए हैं और उन्ही क्रूर इस्लाम मतावलंबियों के बहकावे मे आ अपने मूल के बिरोध यानी आतंकी वन उनके साथ खड़े दिख रहे है।
आज भी गुरु अर्जन देव की आत्मा की शांति के लिए हम ठंडा शर्बत पिलाते हैं , लेकिन कुछ सिखों को ये सच नहीं मालूम।
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        गुरु अर्जन देव सिक्खों के पाँचवें गुरु थे। ये 1581 ई. में गद्दी पर बैठे। गुरु अर्जन देव का कई दृष्टियों से सिक्ख गुरुओं में विशिष्ट स्थान है। 'गुरु ग्रंथ साहब'आज जिस रूप में उपलब्ध है, उसका संपादन इन्होंने ही किया था। गुरु अर्जन देव सिक्खों के परम पूज्य चौथे गुरु रामदास के पुत्र थे।
गुरु नानक से लेकर गुरु रामदास तक के चार गुरुओं की वाणी के साथ-साथ उस समय के अन्य संत महात्माओं (कबीर, गोरखनाथ, संत रविदास जैसे ) की वाणी को भी इन्होंने 'गुरु ग्रंथ साहब'में स्थान दिया।
⛳श्री गुरु अर्जुन देव जी को शहीदों का सरताज कहा जाता है। सिख धर्म के वे पहले शहीद थे।
जागो हिंदुस्तानी
       श्री गुरु अर्जुन देव जी को शहीदों का सरताज कहा जाता है। सिख धर्म के पहले शहीद थे। भारतीय दशगुरु परम्परा के पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई. को हुआ। प्रथम सितंबर, 1781 को अठारह वर्ष की आयु में वे गुरु गद्दी पर विराजित हुए। 30 मई, 1606 को उन्होंने हिन्दू धर्म व सत्य की रक्षा के लिए 43 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी।
        श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत के समय दिल्ली में मध्य एशिया के मुगल वंश का राजा जहाँगीर था और उन्हें राजकीय कोप का ही शिकार होना पड़ा। अकबर की संवत 1662 में हुई मौत के बाद उसका पुत्र जहांगीर गद्दी पर बैठा जो बहुत ही कट्टïर इस्लामिक विचारों वाला था। अपनी आत्मकथा ‘तुजुके जहांगीरी’ में उसने स्पष्ट लिखा है कि वह गुरु अर्जुन देव जी के बढ़ रहे प्रभाव से बहुत दुखी था। इसी दौरान जहांगीर का पुत्र खुसरो बगावत करके आगरा से पंजाब की ओर आ गया। जहांगीर को यह सूचना मिली थी कि गुरु अर्जुन देव जी ने खुसरो की मदद की है इसलिए उसने गुरु जी को गिरफ्तार करने के आदेश जारी कर दिए।
         बाबर ने तो श्री गुरु नानक गुरुजी को भी कारागार में रखा था। लेकिन श्री गुरु नानकदेव जी तो पूरे देश में घूम-घूम कर हताश हुई हिन्दू जाति में नई प्राण चेतना फूंक दी। जहांगीर के अनुसार उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर, घर-बार लूट लिया गया। इसके बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।
        जहांगीर ने श्री गुरु अर्जुनदेव जी को मरवाने से पहले उन्हें अमानवीय यातानाएं दी। मसलन चार दिन तक भूखा रखा गया। ज्येष्ठ मास की तपती दोपहरियां में उन्हें तपते रेत पर बिठाया गया। उसके बाद खौलते पानी में रखा गया। परन्तु श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने एक बार भी उफ तक नहीं की और इसे परमात्मा का विधान मानकर स्वीकार किया। गुरु अर्जुन देव जी को लाहौर में 30 मई 1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान ‘यासा’ के तहत लोहे की गर्म तवी पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। यासा के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है। गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो आप जी को ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया जहां गुरुजी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। गुरु अर्जुनदेव जी ने लोगों को विनम्र रहने का संदेश दिया।
       आप विनम्रता के पुंज थे। कभी भी आपने किसी को दुर्वचन नहीं बोले। गुरुवाणी में आप फर्माते हैं :
‘तेरा कीता जातो नाही मैनो जोग कीतोई॥
मै निरगुणि आरे को गुण नाही आपे तरस पयोई॥
तरस पइया मिहरामत होई सतगुर साजण मिलया॥
नानक नाम मिलै ता जीवां तनु मनु थीवै हरिया॥’
तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाई बन गया। तपती रेत ने भी उनकी ज्ञान निष्ठा भंग न कर पायी। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की-
तेरा कीआ मीठा लागे॥
हरिनामु पदारथ नानक मांगे॥
       जहांगीर द्वारा श्री गुरु अर्जुनदेव जी को दिए गए अमानवीय अत्याचार और अन्त में उनकी मृत्यु जहांगीर की इसी योजना का हिस्सा था। श्री गुरु अर्जुनदेव जी जहांगीर की असली योजना के अनुसार ‘इस्लाम के अन्दर’ ---- तो क्या आते---! इसलिए उन्होंने विरोचित शहादत के मार्ग का चयन किया, गुरु जी को सबसे पहले आगरे के किले मे बंद किया हजारों हिंदुओं ने अपना उस दीवार पर मस्तक पटप-पटक फोड़ डाला तब मुगल को लगा की गुरु को अधिक दिन जिंदा रखा तो बड़ा बिदरोह होगा और फिर उनका इस प्रकार बलिदान हुआ ।
         इधर जहांगीर की आगे की तीसरी पीढ़ी या फिर मुगल वंश के बाबर की छठी पीढ़ी औरंगजेब तक पहुंची। उधर श्री गुरुनानकदेव जी की दसवीं पीढ़ी थी। श्री गुरु गोविन्द सिंह तक पहुंची। यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही श्री नानकदेव की दसवीं पीढ़ी ने मुगलवंश की नींव में डायनामाईट रख दिया और उसके नाश का इतिहास लिख दिया। संसार जानता है कि मुट्ठी भर सिंघ रूपी खालसा ने 700 साल पुराने विदेशी वंशजों को मुगल राज सहित सदा के लिए ठंडा कर दिया। 100 वर्ष बाद महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में भारत ने पुनः स्वतंत्राता की सांस ली। हरीसिंह नलवा जैसे सेनापति खड़ा कर अफगानिस्तान तक फतह की आज भी अफगानिस्तान मे माताएँ कहतीं है बेटा सो नहीं तो नलवा आ जाएगा महाराजा रंजीत सिंह के नेतृत्व मे पूरा कश्मीर, अफगानिस्तान तक सीमा हुई, देश के सारे तीरथों का पुनर्निमान कराया, नलवा ने जैसे को तैसा जबाब दिया जहां-जहां जज़िया कर लगाए गए थे नलवा ने मुसलमानों से भी कर लिया मंदिरों के गिराने का भी बदला लिया मस्जिदें भी गिराया, शेष तो कल का इतिहास है, लेकिन इस पूरे संघर्ष काल में पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत सदा सर्वदा सूर्य के ताप की तरह प्रखर रहेगी।
सिख भाई भूल गए हैं की गुरु अर्जन देव जी के पिता का नाम गुरु रामदास था न की कोई मोहम्मद आलम था। सभी सिख सनातनी हैं और हिन्दू हैं।
          सिक्खों की बलिदानी परंपरा भाई मतिदास को आरे से चिरवा कर सहिद किया, भाई सतीदास को खौलते पानी मे उबाल कर मारा, गुरु बंदा वैरागी को गरम शलखें से दाग-दाग कर जलाकर शरीर को नुचवाकर मारा, गुरु पुत्रों का बलिदान कौन भूल सकता है लेकिन उन्होने सिक्ख परंपरा के सम्मान की रक्षा की वे डिगे नहीं अंतिम समय तक गुरु नानक का ध्यान कर धर्म की रक्षा की, वे सभी जैसे उनके चेहरे पर भगवान सूर्य स्वयं ही विराजमान हो गए हों ऐसा उनके चहरा दीप्तमान लाह रहा था । आखिर वे सब गुरु के वंदे थे कैसे झुकते उन्होने विधर्मियों को झुका ही दिया उन्हे (मुगुलों को ) भारत मे समाप्त होना पड़ा। 
दसवें गुरु गोविंद सिंह ने ऐसे खड़े किए शिष्य---------!
चिड़ियाँ से मैं बाज लड़ाऊँ , गीदड़ों को मैं शेर बनाऊँ । 
सवा लाख से एक लड़ाऊँ, तबै गोविंद सिंह नाम कहाऊँ ।    
जागो हिंदुस्तानी
रोम -रोम नतमस्तक
देश आज़ादी के पश्चात ऐसे देश बिरोधियों की सत्ता आयी जिनहोने इन बलिदानियों को भुला दिया उन्हे ईश्वर कभी माफ नहीं करेगा हृदय में अत्यंत ही क्षोभ है कि ऐसे देवपुरुष का इतिहास ना तो हमें कभी पढाया गया और ना ही कभी बताया गया पाठ्यक्रम कहीं भी नहीं मिलता जिससे हम प्रेरणा ले सकें ...
लेकिन अब समय आ गया है कि हम मैकाले के षडयंत्र पूर्वक रचे गए झूठे और भ्रामक शिक्षा कुचक्र से बाहर निकले और अपनी स्वयं की, धर्माधारित शिक्षा व्यवस्था की स्थापना करें। जिसमें अपने धर्म का अपने पूर्वजों का एवं अपने इष्ट का सम्मान हो, उनकी शौर्य गाथा को भारत का बच्चा - बच्चा जाने
और
उनके आदर्शों को अपनायें।

अजात शत्रु थे मा मुकुन्द राव

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अजात शत्रु थे मुकुन्द राव --------! 
         मा मुकुन्द राव संघ के प्रचारक थे वैसे तो बैठकों मे तो कई बार उनसे भेट होती रहती थी एक बार गांधी नगर मे प्रांत प्रचारक बैठक (सन 2000 सायद) थी मुझे भी शायद मुंबई जाना था वे और मै एक ही कोच मे थे मेरे साथ दो कार्यकर्ता और थे मैंने उनसे पूछा की भोजन करेगे उन्होने सहज ही स्वीकार का लिया उस दिन पहली बार उनसे ब्यक्तिगत बात हुई उन्होने नेपाल के बारे मे कुछ पूछ- ताछ की उनका सहज और सरल ब्यक्तित्व था । 
               यह कौन जनता था की उनही से मेरा पाला पड़ने वाला है कई बार बैठकों मे धर्म जागरण का विषय वे रखते थे उस विषय का पालन हम अपने प्रांत मे करते भी थे मेरी नेपाल से वापसी हुई मा भैया जी ने मुझसे बार्ता की कि आपको अब नेपाल से वापस आना है मैंने बेहिचक स्वीकार कर लिया वापस आने लगा तो पुनः बुलाया अरे पूछा भी नहीं कि क्या काम मिलेगा फिर उन्होने बताया कि संभव है कि धर्म जागरण का काम मिले--! चुनाव वर्ष था 1999 मार्च मा भैया जी सरकार्यवाह चुने गए जब घोषणा हुई तो मेरी भी घोषणा हुई मै मा मुकुन्द राव से मिलने गया वे बड़े सहज थे तपस्या उनके चेहरे पर झलकती थी और उन्होने मुझे सूरत की प्रांत प्रमुख बैठक मे बुलाया और मै उनके सानीध्य मे काम करने लगा, वे अच्छा भाषण नहीं करते थे उनकी तपस्या बोलती थी सहज ही वे सबसे काम ले लेते थे अपने कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाने व काम लेने की अद्भुत क्षमता थी उनमे वे जो कहते उसे कोई इंकार नहीं कर पाता था, सभी को लगता था की हमे ही सर्बाधिक मानते हैं, ऐसा उनका ब्यक्तित्व था ।
       उनका जन्म महाराष्ट्र 27 मई 1940 मे हुआ उनकी सारी शिक्षा दीक्षा मुंबई मे हुई संयोग से वही से प्रचारक निकले नगर प्रचारक, महानगर प्रचारक, प्रांत प्रचारक और क्षेत्र प्रचारक फिर अखिल भारतीय धर्म जागरण प्रमुख के नाते मुंबई ही उनका केंद्र रहा, वे अत्यंत सहज और सरल प्रकृति के थे  कोई भी कार्यकर्ता अपने मन की बात उनसे कर सकता था कार्यकर्ताओं को पूरी छूट देते थे उनके अथक परिश्रम का ही परिणाम है कि देश भर मे धर्म जागरण के बड़ी संख्या मे कार्यकर्ता खड़े हुए उन्होने प्रत्येक विषय के चिंतन हेतु टोली बनाया और चिंतन के पश्चात धर्म जागरण के पांचों आयाम (परियोजना, प्रशासन, संस्कृति, विधि और निधि) खड़े किया सभी विषयों की अलग-अलग बैठके कर विषय की स्पष्टता की।
         मेरी योजना 1999 मे बिहार मे हुई उस समय मडला कुम्भ की योजना चल रही थी और अपने कार्य योजना का अभ्यास वर्ग जो इंदौर मे था उस समय उनसे निकटता बढ़ी मैंने एक कार्य योजना उनके सामने रखी कि मै एक यात्रा हरिहरनाथ से मुक्तिनाथ (नेपाल) तक निकालना चाहता हूँ उन्होने तुरंत स्वीकार कर लिया वास्तव वे किसी भी प्रयोग को करने कि छूट देते थे 2011 मे प्रथम यात्रा शुरू हुई वे स्वयं सोनपुर आए बड़े नजदीक से उन्होने सब कुछ देखा वे अपनी पैनी दृष्टि भी रखते थे पर हस्तक्षेप नहीं करते कुछ गलती होती तो बाद मे बताते, यात्रा बड़ी लंबी 750 किमी की थी प्रत्येक वर्ष चलनी थी प्रथम बार की यात्रा मे मा मुकुन्द राव, मा स्वांत रंजन जी, महंत विश्वनाथ दस शास्त्री सहित बड़ी संख्या मे संत महंत थे उन्होने प्रत्येक कार्यक्रम मे भाग लिया गंगा आरती, रात्री के सांस्कृतिक कार्यक्रम और प्रातः 10 बजे की धर्म सभा, रथ की बिदाइ के लिए तत्कालीन पर्यटन मंत्री सुनील कुमार उपस्थित थे यात्रा चल दी उनको जाना था वे मेरे कमरे मे आए पूछा की कितना घाटा लगेगा मैंने उन्हे बताया की इतना रुपया आया है उन्होने कहा चिंता नहीं करना और मुंबई चले गए। उन्होने यात्रा के घाटे की  पूरी ब्यवस्था की इतना ही नहीं क्षेत्र मे पूर्ण कालिक कार्यकर्ता होने चाहिए उसके लिए प्रोत्साहित करना और सब प्रकार की ब्यवस्था करना चिंता करना उनके स्वभाव मे था, वे कठिन से कठिन कार्य को बड़ी सरलता से करा लेते यह उनका गुण था । 
         यात्रा मे तो वे प्रथम बार हरिहर नाथ मंदिर उदघाटन के सारे कार्यक्रम मे रहकर चले गए लेकिन जब अगले वर्ष की सूचना दी तो उन्होने कहा कि मै इस साल यात्रा मे आगे तक चालूगा और उन्होने 100 किमी प्रथम दिन की यात्रा पूरी की मुजफ्फरपुर जिले के पारु ब्लॉक फतेहवाब गंडक नदी के किनारे विशाल धर्म सभा मे उन्होने कहा "हज़ार वर्ष की पराधीनता विगत तेरह सौ वर्षों के आक्रमणीय भारत की संस्कृति, परंपरा, रीति-नीति, चिंतन, चरित्र, विचार और ब्यवहार सभी को प्रभावित किया है, भारत को अक्षुण बनाये रखने का कार्य इस प्रकार की यात्राओं के माध्यम से संतों ने किया है, इन यात्राओं से समाज मे ब्याप्त भेद-भाव कुरीति को समाप्त कर समरस भाव प्रकटाएगे, हमे अपनी संख्या बढ़ाना है, जहां -जहां हिन्दू कम हुआ वह भाग अपने पास नहीं रहा, हमे अपनी पाचन क्रिया बढानी होगी, विधर्मी हुए बंधुओं को स्वधर्म मे लाना होगा तभी हमारा लक्ष्य पूरा होगा ।
        मुकुन्द राव का लगभग प्रत्येक प्रांत मे प्रति वर्ष दौरा होता था वे सीवान के प्रांत अभ्यास वर्ग मे आए संयोग से भारत के प्रथाम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू का गाव था वे बहुत प्रसंद हुए तीन दिन का वर्ग था उन्होने दो ही कालांश लिया वे एक-एक कार्यकर्ता को प्रशिक्षित करते थे एक बार जिसका परिचय लेते उन्हे याद हो जाता नाम लेकर ही पुकारते कभी अलग से सुबिधा की चिंता नहीं करते, उन्होने कहा कि यदि यात्रा हमेसा निकलनी है तो इसका प्रशिक्षण वर्ग करना चाहिए, वर्ग प्रसिद्ध धार्मिक स्थान अरेराज मे तय हुआ, हरिहरनाथ यात्रा का अभ्यास वर्ग था वे चंपारण जिले के अरेराज आए हुए थे जिस कार्यकर्ता के यहाँ उन्हे ठहराया गया था मै भी उसी मे था पता चला उसमे कमोड नहीं है कार्यक्रम जब समाप्त हो गया हम लोग पटना वापस आए तब गोपाल नारायण सिंह ने हमे बताया की उस सौचालय मे कमोड नहीं था उन्हे कठिनाई हुई वे सामान्य सीट पर बैठ नहीं सकते थे लेकिन उन्होने कुछ नहीं बताया वास्तव मे बड़े ही कार्यकर्ताओं का ध्यान रखते बहुत कम मे काम चलते कठिनाई झेल जाते, पटना मे 2013 का संता सम्मेलन था कैसे होगा इसकी बड़ी चिंता थी देश के सभी संत चाहते थे की सम्मेलन पटना मे होना चाहिए, लेकिन कुछ कारण था कैसे हो पटना मे लेकिन मुकुन्द राव बिलकुल हमेसा खड़े रहते कितनी भी कठिनाई हो साहस बढाते, "राणीसती"मे कार्यक्रम तय था सभी के रहने की ब्यवस्था कई स्थानों पर थी अपने एक कार्यकर्ता जिसने कार्यक्रम का हाल बूक कराया था कहीं कोई गलती हो गई तीन दिन के स्थान पर दो दिन ही बूक हुआ जब मुकुन्द राव को पता चला ब्यवस्था हो रही थी वे कुछ नहीं बोले बड़े सहज तरीके से कार्यक्रम पूरा हो गया कुछ लोग तो समझ भी नहीं पाये की क्या हुआ ? बाद मे समीक्षा बैठक मे उन्होने पूछा की यह कैसे गलती हो गई जब मैंने कार्यकर्ता का नाम बताया तो उन्होने एक वाक्य मे सब समाप्त किया कहा की उस कार्यकर्ता को कुछ नहीं कहना ऐसे थे मुकुन्द राव ।
          एक बार क्षेत्र प्रमुखों की बैठक जलगांव के पास एक गाँव मे थी अच्छी ब्यवस्था थी मै जलगांव स्टेशन पहुंचा था की मेरे पैर मे बहुत दर्द शुरू हो गया मेरा पुराना रोग यूरेकेसिड बढ़ गया था बहुत तेज दर्द था मा मुकुन्द राव को पता चला वे मेरे कमरे मे आए डाक्टर तो आया ही वे अभिभावक की भाति खड़े रहे फिर उन्होने अपने झोले से धनिया निकला मुझे दिया अपने बोतल मे डाल लो इसका पानी बात रोग मे फायदा करता है मैंने डाक्टर की दवा तो ली ही, उसी के पश्चात मै अपने पास झोले मे हमेसा धनिया रखता हूँ मुकुन्द राव अपने पास हमेसा धनिया रखते थे, नागपुर मे बैठक थी मेरी गाड़ी प्रातः 3.30 बजे थी वे 2.30 बजे ही मेरे कमरे के सामने आए सूबेदार जी चाय तैयार है आपकी गाड़ी है न, मै नीचे उतारा चाय पी मुझे छोड़ने के लिए कार खड़ी थी वे कितनी चिंता करते थे कल्पना नहीं कर सकते एक-एक बिन्दु की चिंता करना उनका स्वभाव था उनके कारण किसी को कष्ट नहीं हो यह चिंता लेकिन दूसरे को कोई कष्ट न हो इसकी स्वयं चिंता करना अद्भुत जीवन था छण-छण संघ के लिए जिये ऐसे थे मुकुन्द राव ।       
         वे बैठकों मे कहते थे की धर्म रक्षा समितियों के माध्यम से कार्यकर्ता खड़ा कर अनेक क्षेत्रों मे देना है वे स्वामी श्रद्धानंद तथा स्वामी लक्षमना नन्द के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे उनके अधूरे कार्य ( घर वापसी) को पूरा करने उसे अपना ही कार्य मानते थे। बार-बार संकल्प दुहराने और इन्हीं आधार पर धर्म जागरण का कार्य की आधार शीला रखी देश के प्रत्येक प्रांत मे कार्य खड़ा हो गया घर वापसी शुरू हो गयी, सभी प्रान्तों ने 2021 मे हम संकल्पित परिवर्तन लाएगे ऐसा मुंबई बैठक ppt द्वारा बृत प्रस्तुत किया गया, नागपुर का अभ्यास वर्ग उन्होने बड़ी योजना से किया और देश का खाका प्रस्तुत कर कार्यकर्ताओं मे विस्वास पैदा किया जो मिल का पत्थर साबित हुआ।  
 हिन्दू जगाओ, हिन्दू बचाओ, 
हिन्दू बढ़ाओ, हिन्दू सम्हालो।
वे 7 नवंबर 2015 प्रातः काल कार्य करते-करते चले गए वे कार्यक्रम से लौट रहे थे ट्रेन मे ही उन्होने इहलोक की यात्रा पूरी की, उन्होने अपने वचन को निभाया "पततवेष कायो"एक भी छण विश्राम नहीं लिया वे हमेसा याद आएगे और जब-तक यह कार्य चलेगा वे हमारे प्रेरणा के श्रोत बने रहेगे ।                
सूबेदार 
मुजफ्फरपुर 

देश और समाज की रक्षा हेतु संतों की महान परंपरा----------!

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जब-जब हिन्दू समाज और देश पर संकट आया तब-तब संत आगे आए---!
यदा यदाहि धर्मस्य तदात्मनम श्रीजामिहम -------
जब-जब धर्म कि हानी होती है मै आता हूँ और वे आए कभी आदिशंकर के रूप मे तो कभी नानक के रूप मे तो कभी स्वामी रामानुज, स्वामी रामानन्द तथा कभी ऋषि दयानन्द के रूप मे धर्म के रक्षार्थ ------
        एक समय ऐसा भी आया कोई 2500 वर्ष पहले जब भारत का राज धर्म बौद्ध यानि नास्तिक पंथ यानी अहिंसा के नाम पर नपुंशकता का भाव, अराष्ट्रीय भाव बन गया था वैदिक धर्म प्रायः लोप सा हो गया था राष्ट्रीयता व क्षत्रित्व का भाव लगभग समाप्त सा हो गया था उस समय कुमारिल भट्ट ने शास्त्रार्थ द्वारा जैनियों तथा बौद्धों यानी नास्तिक पंथ को परास्त किया ही था कि समय की पुकार सुन दक्षिण केरल के कालड़ी ग्राम से सात वर्ष का सन्यासी शंकर नर्मदा तट अमर कंटक जिनकी तपस्थली ऐसे गोविंद पाद से दीक्षा लेकर वैदिक धर्म की प्रामाणिकता सिद्ध कर पूरे भारतवर्ष मे पुनर्वैदिक धर्म की स्थापना की।
        712 ईसवी सन मे मुहम्मदबिन कासिम जो अरब का कबीलाई सेनापति था सिंध के महाराजा दाहिर पर हमला किया कई बार पराजित हुआ धोखे से राज़ा दाहिर पराजित हो गए कासिम केवल लूट-पाट ही नहीं किया बल्कि धर्मांतरण भी किया 24000 हिन्दू ललनाओं को अरब के बाज़ारों मे ले गया, लेकिन वह लंबे समय तक टिक नहीं सका उस समय देवल ऋषि का प्रादुर्भाव हुआ उन्होने 'देवल स्मृति'लिखा जिसमे घर वापसी का रास्ता खोल दिया ऋषि देवल ने अपनी स्मृति मे 96 श्लोकों मे इसी को सर्बाधिक महत्व दिया घर वापसी की सरल पद्धति विकसित की । 
1- "प्रायश्चिते तु शंकिर्णे गंगास्नानेन शुध्याति"। 
2- सिंधु सौवीर सौराष्ट्र तथा प्रत्यंतवासिन । 
कलिंग कोंकणान बंगाल गत्वा संस्कार मरहिती ॥
और जो इस्लाम स्वीकार किए थे वह सभी हिन्दू धर्म मे वापस आ गये कासिम समाप्त हुआ ।
          तेरहवीं शताब्दी मे संत रामानुजाचार्य हुए जिन्होने भक्ति आंदोलन देश भर मे फैलाया वे समरसता के प्रबल योद्धा थे एक मुस्लिम लड़की बीबी नचचियार को मंदिर मे रखा उन्होने मंदिरों की पूजा मे क्रांतिकारी परिवर्तन किया वे समरसता के अग्रदूत थे, स्नान करने जाते समय ब्राह्मण के कंधे पर हाथ रख कर जाते वापस आते समय तथा कथित सूद्र के कंधे पर हाथ रखकर आते वे कहते थे की ब्राह्मण के कंधे पर हाथ रखने से शरीर शुद्ध होती है लेकिन जब मै शूद्र के कंधे पर हाथ रखता हूँ तो मन की शुद्धि होती है ।
        पंद्रहवीं सोलहवीं शताब्दी मे रामानन्द स्वामी का प्रादुर्भाव हुआ उस समय सिकंदर लोदी, बहलोल लोदी का शासन था रामानन्द स्वामी बड़े प्रतापी संत थे 175 वर्षों तक अपने शिष्यों के साथ पूरे भारत का भ्रमण करते रहे उनके द्वादस भगवत शिष्य थे वे सभी प्रतिभा सम्पन्न थे उन्होने शुद्धि की घोषणा कर दी ।
कंठे च तुलसी माला जिभ्वा राममयीकृता।
म्लेच्छास्ते वैष्णवाश्चासन रामानन्दप्रभावकृत॥
तत्काल अयोध्या के आस-पास 35 हज़ार राजपूतों को जो मुसलमान हो गए थे सबको हिन्दू बनाकर वही बसा लिया।
        बहलोल लोदी संत रविदास तथा संत कबीर के प्रभाव को सह नहीं सका सदन कसाई को रविदास को मुसलमान बनाने हेतु भेजा लेकिन वह हिन्दू बन गया बाद मे बहलल लोदी ने संत रबिदास को जेल मे डाला संत कबीर दास को हाथ पैर बांध कर गंगाजी मे फेंक दिया लेकिन वे सब हार नहीं माने हिन्दू धर्म की अलख जगाए रखा, कबीर ने पाखंडों तथा मुल्ला मौलाबियों का जमकर बिरोध किया, संत रबीदास ने कहा ----
वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान, 
फिर मै क्यों छोड़ू इसे पढ़ लूँ झूठ कुरान।
वेद धर्म  छोड़ूँ नहीं  कोसिस  करो  हज़ार,
 तिल-तिल काटो चाहि गोदो अंग कटार ॥
सारे हिन्दू समाज को भक्ति मयकर बचा लिया।
         मुगल काल मे एक और संत हो गए संत तुलसीदास जिन्होने लोक भाषा मे रामायण लिखा जो जगत प्रसिद्ध हो गया उसी आधार पर राम लीला शुरू की उन्होने कहा "कोई नृप होई हमे का हानी"यानी हमारे राज़ा तो राम हैं ऐसा संदेश दिया, मुगल सासन को लगा की जनता तो हमारी बात ही नहीं मानती वह तो संतों की ही बात सुनती है उसने तुलसीदास को पत्र लिखा लेकिन वे अकबर के दबाव मे नहीं आए लिख भेजा ----
हम चाकर रघुबीर के पटो लिखो दरबार। 
अब तुलसी का होईहैं नर को मनसबदार॥
        ऐसे थे हमारे संत इसी काल मे हमारे सिक्ख बलिदानी परम्परा शुरू हुई गुरु अर्जुन देव का प्रथम बलिदान हुआ फिर क्या था----! हिन्दू धर्म रक्षा हेतु गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविंद सिंह, बंदा वीर बैरागी जैसा बलिदान का आंदोलन ही शुरू हो गया और मुगलों की जड़ मे मट्ठा डालने जैसा कार्य किया आज मुगलों नाम की कोई चीज नहीं बची इस देश मे, शायद विश्व मे ऐसा कोई उदाहरण हो।   
          ब्रिटिश काल मे स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू समाज रक्षा हेतु आंदोलन ही खड़ा कर दिया उनके उत्तराधिकारी स्वामी श्रद्धानंद जी ने शुद्धि सभा का गठन कर लाखों बिधर्मियों को स्वधर्म मे लाये प॰ उत्तरप्रदेश में मेरठ से गाजियाबाद के बीच 111 गावों के बिधर्मी हुए हिंदुओं को पुनः घर वापसी की, राजस्थान के सवा लाख मलकाना मुसलमान बने राजपूतों की घर वापसी उसी मे एक अब्दुल रसीद नाम के सिरफिरे ने स्वामी जी को गोली मारकर हत्या कर दी, स्वामी जी तो चले गए लेकिन आज भी उनका मिशन जिंदा है ।
            आज समय की अवस्यकता है हम अपने पूर्व संतों का अनुसरण करें हिन्दू समाज और देश बर्तमान संतों का इंतजार कर रहा है वे गले लगने को तैयार है संतों को आगे आने की जरूरत है देश को अब संत ही बचा सकते हैं घटती हुई हिन्दू जनसंख्या क्या हम पुनः भारत बिभाजन को तैयार हैं, आए दिन मठ-मंदिर खतरे मे हैं पुजारियों का गला रेट कर हतयाए हो रही हैं हम संत समाज कब=तक सोते रहेगे, जब किसी मंदिर के पुजारी की हत्या गला रेतकर होती है क्या हमे कष्ट नहीं होता ----! आइए हम अपने समाज और देश की रक्षा मे खड़े हों, हिन्दू समाज कातर भाव से हम संतों को पुकार रहा है।         

बिहार के दुसाद (पासवान) गोहिल (गहलोत) वंशीय राजपूत-----!

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दुसाध जाती का गौरव शाली अतीत--------!
      ''दुसाद''जाती बिहार मे अथवा बिहार से सटे हुए उत्तर प्रदेश के जिलों मे पाये जाते हैं ऐसा क्यों है मै इसकी चर्चा आगे करूंगा, यह मार्शल कौम है सौर्य इनका लक्षण है विस्वस्नियता इनके जींश मे पाया जाता है किसी को धोखा देना जानते ही नहीं बड़े धार्मिक और कट्टर देश भक्त, धर्म के लिए कुछ भी कर सकते हैं ऐसा इनका जीवन स्वभाव इधर इस समाज मे बड़े-बड़े उद्दमी, प्रशासनिक अधिकारी पाये जाते हैं इनके कुल देवता 'महराज चौहरमल'माने जाते हैं, इस समाज की कुछ पूजा आज भी जीवंत है जैसे आग पर चलना, खौलते हुए दूध मे हाथ डालकर चलाना और इश्वर मे विस्वास ऐसा कि आज तक कुछ नहीं हुआ इस पूजा की बड़ी महिमा व मान्यता है जो आज भी जीवंत है।
            वास्तविकता यह है कि यह वंश हिन्दू धर्म कि रक्षा हेतु राणा लाखा के नेतृत्व मे गयाजी (विष्णु पाद) मंदिर रक्षा हेतु राजस्थान से चलकर गोहील वंश के क्षत्रिय बड़ी संख्या मे बिहार आये उस समय इस्लामिक सत्ता थी जो हिंसा हत्या बलात्कार मे विस्वास करती थी, मंदिरों व मूर्तियों को तोड़ना ही इनका धर्म था, इस्लाम के अंदर तो मानवता नाम कि कोई चीज न थी न आज है उन्होने बड़ी वीरता के साथ इस धर्म भूमि और मंदिरों की रक्षा मे अपना जीवन बिता दिया यहीं के होकर रह गए, समय काल परिस्थितियाँ बदलीं जो रक्षक थे वे पददलित हो गए मुगलों की बार्बर सत्ता आ गयी हिंदुओं की बहन बेटियाँ सुरक्षित नहीं, सभी को यह पता है की हिन्दू धर्म मे बिबाह दिन और मंदिरों मे होता था लेकिन इस्लामिक सत्ता ने सब कुछ तहस- नहस कर दिया मंदिरों पर हमले होने के साथ वहाँ बिबाह बंद हो गया जो बिबाह दिन मे होता था वह अपनी सुरक्षा हेतु घर के अंदर होने लगा जो बिबाह बिना दहेज व खर्चे के होता था अब सुरक्षा हेतु बड़ी संख्या मे बारात के नाम पर आने लगे बिबाह रात्री मे होने लगी ।
          इतना ही नहीं चुकी मंदिरों मे बिबाह की मान्यता है तो जो बिबाह मंडप बनाया जाता है उसमे मंदिरों के चिन्ह बनाए जाते हैं लड़की की बिदाइ हो रही है उसे इस्लामिक लोग लूटते कभी कभी सुरक्षा नहीं हो पति क्योंकि सत्ता तो मुसलमानों थी डोली पर खतरा आ गया समाज ने बिकल्प के तौर पर सुवर का बच्चा दुल्हन की डोली मे रख देते जिससे मुसलमानों से डोली सुरक्षित रहती इतना ही नहीं अपनी व अपने धर्म की सुरक्षा हेतु सुवर पालन शुरू हो गया, "कुरान"मे सुवर निकृष्ट माना जाता है इस कारण मुसलमान इसे घृणास्पद समझते हैं फलतः यवनों से बचाव हेतु जब कभी मुसलमान इनपर हमला करते तो ये सुवर की हड्डी, मांश खून फेकना शुरू कर देते अपनी लड़कियों के रक्षार्थ सुवर के हड्डी की ताबीज पहनना अनिवार्य हो गया जब उसकी डोली जाती तो यह ताबीज पहनना अवस्यक कर दिया गया, धीरे- धीरे हिन्दू समाज मे बिकृति आई समाज का यह वर्ग जो गोहील क्षत्रिय है वह आज अछूत हो गया लेकिन धर्म नहीं छोड़ा, ये सभी मंदिरों के रक्षक थे इस कारण वे इस्लाम के निशाने पर पड़े, लेकिन जिस उद्देश्य से ये राजस्थान से आए थे उसमे आंच नहीं आने दी।
         क्या सनातन धर्म मे छुवा -छूत, भेद-भाव अथवा उंच -नीच को स्थान है तो जब हम अपने मूल ग्रंथ की तरफ देखते हैं तो दिखाई देता है की हमारे धर्मग्रंथ मे कहीं इन सब के लिए कोई स्थान नहीं है ध्यान मे आता है की समाज मे जो लड़ाकू थे रक्षक थे योजना वद्ध तरीके उन्हे पददलित किया गया,उस समय भारत मे मुगलों, पठानों का राज्य था फिर मुगलों का राज्य हुआ और अंत मे अंग्रेजों ने भी राज किया पर मुगल अंग्रेजों का युग अत्याचार और दमन का युग था जिससे लड़ाकू कौम को दबा दिया गया, फल स्वरूप अच्छे साहित्य और जातीय इतिहास का सृजन नहीं हो सका इस तरह गोहील- गहलोत (दुसाध) जैसे भयंकर लड़ाकू जाती को हर तरह दबाने की कोशिस की गयी फलतः इनकी संताने अपने पूर्वजों के गौरव को भूलकर अंधकार मे गुम हो समाज मे हर तरह से नीचे गिर गयी ।
           दुसाध जाती का जिक्र ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र की सूचियों मे अथवा किसी ग्रंथ मे नहीं आता है, डिसरी तरफ कर्नल टाट के आलवे अन्य लेखकों ने प्रमाण आदि द्वारा साबित करके बताया है कि "दुसाध"क्षत्रियों कि एक शाखा है, ''ब्राह्मण निर्णय''ग्रंथ द्वारा भी दुसाध क्षत्रिय कि एक शाखा है, "क्षत्रिय वंश प्रदीप"मे 'दुसाध'को क्षत्रियों कि एक शाखा माना गया है भाग एक के पृष्ठ 409 ग्यारह सौ क्षत्रियों की सूची मे दुसाध का 480 वां स्थान दिखाया गया है, पं ज्वाला प्रसाद द्वारा संपादित जाति भास्कर नमक ग्रंथ मे गहलौतों की 24 शाखाओं एक दुसाध भी लिखा है इंडियन फ्रेंचईजी समिति की रिपोर्ट मे लिखा है कि 'दुसाध'उत्तर बिहार कि पुरानी जाति है जिसमे कई राजा हुए हैं । 
         पूजा पद्धति -----------
         जंगल मे गाय चरते हुए मेवाण वंश के आदि राजा राहुप को भगवान एकलिंग व योगी हरित मुनी की कृपा से दो धार वाली तलवार मिली जिसके बल वे बड़े शक्तिशाली राजा हुए आज भी तलवार की पूजा दुसाध अपने देवालय मे करता है जिस तरह राजा शिलादित्य प्रभात की बेला मे सूर्य कुंड के मधायम से सूर्य की पूजा करते थे ठीक उसी तरह सूर्योदय के पहले उनकी संतान (दुसाध) भी इस पूजा को धूम-धन से करते हैं, और अपने त्याग, पराक्रम, संस्कार और सच्चरित्रता का परिचय देते हैं, दुसाध राहू पूजा करते हैं ये क्या है वास्तविकता यह है की राहुप- रावल और फिर उसी का अपभ्रंश राणा है राहू पूजा केवल बिहार मे दुसाधो के यहाँ होती है यह पूजा अपने कुल पुरुष की है जो इस वंश के आदि राजा थे यह इस जाती की पुरानी पूजा है अपने पराक्रम और सौर्य के कारण राणा कहलाने वाले इस वंश के राजा राहुप के नाम से सायद प शब्द लुप्त होने से "राहु"हो गया । 
       वीरों की पूजा-----
       बाबा "बहर सिंह"की पूजा हिंदुओं मे खासकर दुसदों मे होती है इनकी महिमा गीत भी गया जाता है "बहर"गहलोत क्षत्रिय थे सिंह उप नाम क्षत्रिय ही लगता हैं, विशेष कर उत्तर बिहार मे इनकी पूजा होती है, जब हम मोरङ जिला (नेपाल ) मे जाते है कहीं भी "राजा शैलेश"का नाम प्रसिद्ध है बड़ी श्रद्धा के साथ उनका नाम लेते हैं कहीं भी कठिन कार्य पड़े किसी का डर हो अथवा अंधी -तूफान हो राजा शैलेश का नाम लेते ही शक्ति दो गुणी हो जाती है, ये 'बाप्पा रावल'के पुत्र 'कुलेश'का अपभ्रंश शैलेश है चित्तौण से आकार यहाँ राज्य स्थापित किया था, महाराज चौहरमल पटना के मोकामा मे आज भी उपलब्ध है उनका राज्य लाखीसराय से गया तक फैला हुआ था वे ब्रम्हचारी थे ये मल उपनाम गहलौतों की एक शाखा का नाम है अधिक जानकारी के लिए राजपूत वंशावलियों मे बृहत रूप मे मिल सकेगा ।          
         संत तुलस दास ने रामचरित मानस मे लिखा 
         "कर्म प्रधान विश्वकरि राखा,
          जो जस करहि सो तस फल चाखा" 
          भगवान कृष्ण ने गीता कहा------
        "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषू कदाचन" 
        अपना कर्म ही मनुष्य को ऊंचा-नीचा बनाता है  हमे अपने कर्म करना है इस जाती का अतीत गौरव शाली है 'राणा सांगा''बाप्पा रावल'का ध्यान करते हुए अपने चरित्र के बल आगे बढ़ाना हिन्दू समाज की रक्षा, ईसाई और इस्लाम से अपने समाज को बचना यही इस समय का सबसे सर्बोत्कृष्ट कार्य है, धर्म बचा रहेगा, दुसाध जाती बची रहेगी तो देश अपने-आप बचेगा और यह जाती पुनः अपने गौरव को प्राप्त करेगी । 

''भारतीय प्रशासनिक सेवा'' (आईएएस) नहीं ''भारतीय नागरिक सेवा'' (आईएनएस) होना चाहिए --!

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          अंग्रेजों ने भारतीय जनता के ऊपर शासन करने के लिए जो पद्धति अपनाई थी आज भी वही पद्धति कायम है अंग्रेज़ भारतीय जनता की सेवक नहीं शासक थे आज हमे शासक नहीं सेवक की अवस्यकता है लेकिन भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों यानी आईएएस-आईपीएस मे कोई  सुधार न करते हुए इंनका ब्यवहार अंग्रेजों से भी बदतर है, लगता ही नहीं की ये भारत के अधिकारी हैं ये आज भी भारतीय जनता के ऊपर शासन ही करते हैं क्योकि इनका प्रशिक्षण उसी प्रकार का है जैसे अंग्रेजों के समय 'आईसीएस'का था ये जनता को मूर्ख समझते हैं, नेताओं को भी ये हमेसा नीचा दिखने का प्रयास करते रहते हैं इनके अंदर देश -भक्ति नाम की कोई चीज नहीं जो देशभक्ति की बात करे उसे ये मूर्ख समझते हैं जनता को तो ये घास- मुली समझते हैं जैसे गाय चारागाह मे चरती रहती है चारागाह मे घास समाप्त नहीं होती उसी प्रकार ये अधिकारी भारतीय जनता को घास समझते हैं इनको जितना चरते रहो कोई फर्क नहीं, जनता से कोई ममता नहीं शत्रुओं जैसा व्यवहार, भारतीय नेताओं को हमेसा नीचा दिखाने का प्रयास, जबकि आज यदि समाज मे कोई सर्वाधिक ईमानदार है तो वह राजनैतिक नेता क्योकि उसे जनता के बीच जाना होता है, जबाब देह होता है प्रशासनिक अधिकारी को तो जनता के सम्मुख जाना ही नहीं इसकी सीधी ज़िम्मेदारी बनती ही नहीं केवल नेताओं को बदनाम कर लोकतन्त्र को खतरे मे डालते रहना, यदि इन्हे किसी निगम का अध्यक्ष बना दिया गया तो वह निगम ही समाप्त हो जाएगा ये अधिकारी बैठा रहेगा इसकी जनता के लूटने का ही प्रशिक्षण है, इनके ट्रेनिंग का जैसे हिस्सा हो कैसे खाना, क्या कपड़ा पहन कर खाना, सोते समय कौन सा कपड़ा पहनना, शराब कौन सी पीना, जो भारतीय संस्कृति से कोई मेल नहीं खाता वही इनके प्रशिक्षण का हिस्सा होता है, शायद ही कोई आईएएस-आईपीएस अधिकारी भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ रहता हो उसे भारत भारतीय संस्कृति अच्छी नहीं लगती हो--!
          भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे  प्राचीन संस्कृति है वेद अपौरुषेय है वेदों की ऋचायेँ जिसमे ऋषियों के नाम हैं वे मंत्र लेखक नहीं तो वे मंत्र द्रष्टा हैं भारत के प्रशासनिक अधिकारी भारत की रीढ़ हैं इस कारण उन्हे इस बात का ध्यान रखना होगा की वे किस देश के वासी हैं उनकी ज़िम्मेदारी बनती है कि वे इस पुरातन मानवतावादी संस्कृति के रक्षक बने न कि भक्षक --! भारत विश्व गुरु था इसी संस्कृति के बदौलत न कि सेकुलर से, भारत को पुनः अपने पुराने गौरव को प्राप्त करना है विश्व का मार्ग दर्शन करना है विश्वकी आतंकवादी, अमानवीयता की अप-संस्कृति से विश्व को उबारना भारत का कर्तब्य बन जाता है उसमे प्रसासनिक अधिकारियों की भूमिका महत्व की हो जाती है, ऐसे मे भारत को विचार करना होगा कि अपने प्रत्येक अधिकारी अपनी संस्कृति द्वारा शिक्षित हो जिससे उसके समझ मे भारत आए क्योंकि भारत केवल एक जमीन का टुकड़ा नहीं बल्कि जीता जागता राष्ट्र पुरुष है ।   
           इस कारण प्रथम तो इसका नाम बदलना चाहिए इसका नाम "भारतीय नागरिक सेवा"होनी चाहिए जिससे प्रथम दृष्टि ही उसे जनता की ज़िम्मेदारी का अनुभव हो इंनका प्रशिक्षण भी भारतीय संस्कृति केन्द्रित होनी चाहिए इंनका वेश-भूषा भी तय होना चाहिए लगे की ये भारतीय हैं इन्हे वेद, उपनिषद, महाभारत और रामायण सहित भारतीय वांगमय का ज्ञान होना चाहिए जिससे ये भारत, भारतीय संस्कृति और अपने पूर्वजों पर गर्व कर सकें और शंकराचार्य का भारत, चाणक्य का भारत, चन्द्रगुप्त का भारत, पुष्यमित्र शुंग का भारत तथा हज़ार वर्ष संघर्ष-रत भारत का ज्ञान हो सकेगा, क्योंकि यही सेवा भारत की रीढ़ है फिर हम देखेगे की भारत छलांग लगता दिखेगा। आज कैसा है प्रतियोगी परीक्षाओं मे भारत की दयनीय हालत, गुलाम भारत, लुटता -पिटता भारत, ऐसा लगता है की भारत कभी वैभव सम्पन्न नहीं रहा हमारे पूर्वजों को कुछ नहीं आता था हमे वैदिक कालीन भारत का दर्शन नहीं होता हमे चन्द्रगुप्त का शौर्य नहीं पढ़ाया जाता हमे जिस पुष्यमित्र शुंग ने पुनः वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा की बताया नहीं जाता हमे वामपंथी व सेकुलर इतिहासकारों को पढ़ाया जाता है जिनहे भारत का गौरव शाली अतीत अच्छा नहीं लगता, इन सारे विषयों पर विचार कर भारतीय नागरिक सेवा का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। 
           आज भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को भारत व भारतीय संस्कृति से कोई मतलब नहीं है वे मुसलमानों के तुष्टीकरण के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचते वे अपनी नौकरी करते है उन्हे देश के भाषिश्य से कोई लेना देना नहीं वे  निष्पक्षा होकर कोई कम नहीं करते हिन्दू धर्म जो भारतीय धर्म है जैसे वे इसके शत्रु हों उन्हे यह नहीं पता जब-तक हिन्दू है तभी तक भारत है प्रत्येक मुसलमान की निष्ठा भारत नहीं कुरान, मक्का और मदीना है, उनका भारतीय महापुरुषों से भी कोई मतलब नहीं वे तो भारत को फतह कारना चाहते हैं इस्लामिक देश बनाना चाहते हैं, जैसे अरब देशों मे पश्चिम के देशों मे आईएसआईएस, आईएस, अलकायदा, हिज्बुल मुजाहिद्दीन जैसे आतंकवादी संगठन मानवता के दुसमान बने हुए हैं वही हल भारत की भी होगी यदि 'आईएएस'की हालत ऐसे ही रही तो इसलिए इस संस्था को निष्पक्ष रहने की अवस्यकता है उसके लिए इस सेवा मे लगे लोगो का प्रशिक्षण भारतीय दर्शन के आधार पर होनी चाहिए न कि वामपंथ और सेकुलर फ़िलास्फी के आधार पर...!   
           वास्तव मे देश मे दो प्रकार का कैडर है जो देश के बारे मे प्रतिबद्धता रखता है ऐसा माना जाता है प्रथम "आरएसएस"दूसरा "आईएएस"दोनों  मे बेसिक अंतर है एक की सोच भारतीय वांगमय की है तो दूसरे की सेकुलर व वामपंथी, वामपंथी और सेकुलर दोनों अनजाने मे देशद्रोह पर उतारू हैं अथवा वोट बैंक के कारण । इस बात को 'आईएएस'कैडर को समझना होगा हमे लगता है कि 'आईएएस'का अहंकार भी आणे आता है वे अपने को भारतीय समझने मे अपमानित महसूस करते हैं इस कारण इस कैडर का नाम "आईएनएस"सेवा होनी चाहिए जो भारतीयता से वोत -प्रोत हो जो भारतीय नागरिक को मनुष्य समझे न कि घास -भूषा, जब उनके माता -पिता आयें तो उन्हे पहचाने न कि पहचानने से इंकार कर जाय, वास्तविकता यह है कि इसमे सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका है केंद्र सरकार को इस विषय पर विचार करना चाहिए और देश के अंदर इसपर बहस चलनी चाहिए।             

धर्मजागरण द्वारा देश की आत्मा को जगाने हेतु निकलती यात्रायें--------!

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मुकुन्दराव और धार्मिक यात्राएं हमारी परंपरा 

    जैसे वेद अपौरुषेय है यदि यह कहा जाय की भारत वर्ष का निर्माण स्वयं ईश्वर ने की यानि अपौरुषेय तो इसमे कोई अति सयोक्ति नहीं भारत कोई जमीन का टुकड़ा नहीं बल्कि जीता -जागता राष्ट्र पुरुष है सर्व प्रथम ईश्वर ने मनुष्य यानी शृष्टि की रचना की तो भगवान ने मनुष्य की शिक्षा-सभ्यता और उसकी उन्नति हेतु वेद ज्ञान एक ग्रंथ भी भेजा कहा जाता है कि वेद अपौरुषेय है यह सत्य भी है कुछ पश्चिम के लोग अथवा पश्चिम से प्रभावित लोग यह कहते हैं कि वेद मे तो ऋषियों के नाम है लेकिन वे यह नहीं समझते पते कि वे उसके रचयिता नहीं बल्कि वे मंत्र द्रष्टा थे,सम्पूर्ण वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रम्हा जी के कंठ मे आया ब्रम्हा जी ने अपने शिष्य अग्नि,वायु,आदित्य और अंगिरा को दिया उन ऋषियों ने सप्त ऋषि अथवा अन्य ऋषियों को शिक्षित कर सरस्वती नदी के किनारे वैदिक गुरुकुल खोलकर सम्पूर्ण मानव जाती को वेदों का ज्ञान अर्थात मानवता का ज्ञान दिया ।

     हमारे ऋषियों अगस्त,विश्वामित्र,वशिष्ठ,लोपामुद्रा जैसों ने राष्ट्र की एकता अखंडता हेतु तीर्थों का निर्माण किया सभी नदियों को माता तुल्य स्थान दिया इतना ही नहीं वनस्पतियों की रक्षा हेतु पीपल,तुलसी का विशेष महत्व का स्थान दिया एक पुत्र के बराबर पाँच बृक्ष लगाना इस प्रकार की परंपरा बनाई गयी सभी तीर्थों जैसे अयोध्या,मथुरा,माया,काशी,कांची,अवन्तिका का निर्माण के साथ उनके महत्व को दर्शाया मानवता के कल्याण मे ही अपना कल्याण है ऐसा विचार हमारे महापुरुषों ने समाज को दिया सभी छोटे-बड़े तीर्थों की परिक्रमा,नदियों की भी परिक्रमा का धार्मिक विधान इसी मे मुक्ति है, ऐसा मानकर प्रत्येक भारतीय को लगता है कि विश्व मे हमारा धर्म सर्वश्रेष्ठ है वहीं विश्व मे हमारा देश सबसे सुंदर,सबसे अच्छा इससे अच्छा कोई देश नहीं जहां देवता भी जन्म लेने के लिए तरसते हैं ऐसा विस्वास हम भारतियों को है इसी का परिणाम है हम आदि काल से हैं और अनादि काल तक रहेगे ।     

        हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने राष्ट्र की एकता अखंडता हेतु जहां प्रत्येक कंकड़- कंकड़ मे शंकर को देखा वहीं प्रत्येक वनस्पतियों मे देवी- देवताओं का दर्शन किया प्रत्येक नदी को गंगा जी के समान पवित्र मानकर मोक्षदायिनी समझना सभी का वैज्ञानिक आधार है क्योंकि वेद अपौरुषेय है विश्व का ज्ञान कोश है जो वेद मे नहीं वह ज्ञान कहीं नहीं जहां गंगा श्रेष्ठा है वहीं नर्मदा जेष्ठा है,लेकिन आज जहां बिहार स्थिति है हिमालय सहित यह सारा का सरा क्षेत्र क्षीर सागर था यहीं वह क्षेत्र है जहां भगवान विष्णु शेषनाग की शैया पर निवास करते थे भूगोल व भूगर्भ शस्त्र के विद्यार्थी यह जानते होंगे की हिमालय नया पहाड़ है धीरे-धीरे हिमालय का उभर हुआ क्षीर सागर समाप्त हुआ,यही वह क्षेत्र है जहां समुद्र मंथन हुआ था उसका प्रमाण के रूप मे आज भी हरिहरनाथ हरीपुर मौजूद है इतना ही नहीं तो भागलपुर के बांका जिले मे मंदार पहाड़ आज भी है उसमे साँप की रेघारी देखा जा सकता है यहीं से कुछ दूर बसुकीनाथ भी उपस्थिती हैं,कुछ पुराणों मे गज-ग्राह का युद्ध क्षीर सागर बताया गया है कुछ पुराण यह कहते हैं की झील मे हुआ था लेकिन कुछ पुराण कहते हैं कि यह युद्ध नारायणी (गण्डकी) नदी मे हुआ था इस कारण पूरा का पूरा क्षेत्र दबा ही धार्मिक है सरस्वती जहां वेदों कि जननी काही जाती है वहीं नारायणी वेदान्त की माता का स्थान प्राप्त है।

       "हरिहरनाथ मुक्तिनाथ सांस्कृतिक यात्रा" 

       हमारे यहाँ धार्मिक नगरों के परिक्रमा का विधान है चाहे अयोध्या हो अथवा चित्रकूट,जनकपुर हो अथवा कांची सभी की पाँच कोसी,चौदह कोसी परिक्रमा होती है उसी प्रकार कुछ नदियों की भी परिक्रमा का विधान है नर्मदा जी की परिक्रमा तो हमेसा चलती रहती है उसी प्रकार विशिष्ठा द्वैत के प्रथम आचार्या आदि जगद्गुरू रामानुजाचार्य ने जहां सालिग्राम पाये जाते हैं,जिन्हे साक्षात विष्णु माना जाता है जिसकी पूजा विना किसी प्राण प्रतिष्ठा के होती है उनका निवास नारायणी नदी है इस कारण इस नदी को सालिग्रामी भी कहते हैं वे दक्षिण के आचार्या थे वे समरसता के अग्रदूत थे उन्होने नारायणी नदी की परिक्रमा को प्रारम्भ किया आज के ग्यारह सौ वर्ष पूर्व उन्होने इस नदी की हरिहरनाथ से मुक्तिनाथ तक यात्रा की फिर क्या था यह तो परंपरा ही बन गयी मुक्तिनाथ भारतवर्ष के 101 मुक्ति क्षेत्र मे से एक माना जाता है वहीं हरिहरनाथ सात तीर्थ क्षेत्रों मे से एक है,नारायणी के किनारे- किनारे आज भी रामानुज परंपरा के मठ व मंदिर दिखाई देते हैं हजारों तीर्थ यात्रीयों के आवास भोजन की ब्यवस्था होती है यह तो साधू संतों की यात्रा थी लेकिन कुछ कारणों के कारण यात्रा बंद सी हो गयी,धर्मजागरण के कार्यकर्ताओं ने विचार कर इस यात्रा को पुनः शुरू किया इसके बिभिन्न पहलू है जितने धार्मिक क्षेत्र है वहाँ ईसाई चर्च ने अपना पैर फैलाना शुरू ही नहीं किया है बल्कि जड़ जमाना शुरू कर दिया है,यह यात्रा मा मुकुन्दराव,मा स्वांतरंजन जी  के साथ बैठकर मार्च एकादसी सन 2011 को शुरू होना तय हुआ,एक टीम बनी जिसके अध्यक्ष श्री गोपाल नारायण सिंह तय किए गए,सारा मार्गदर्शन श्री सूबेदार जी क्षेत्र प्रमुख धर्मजागरण विभाग (उत्तर-पूर्व क्षेत्र) के निर्देशन मे टीम का गठित हुआ बिभिन्न प्रकार के साहित्य तैयार होने लगे मार्ग तय किए गए पोस्टर,फ्लेगस होर्डिंग से युक्त टीम । 

        चर्च का षड्यंत्र धीरे धीरे भारतीय परंपरा को समाप्त कर देना ही लक्ष्य है, हमने देखा काठमाण्डू पशुपतिनाथ मंदिर के किनारे भगवान के मंदिर को घेरकर अपने जन सेवा के नाम पर धर्मांतरण का कुचक्र रच लिया है इतना ही नहीं जनकपुर,सीतामढ़ी सहित लगभग सभी तीर्थ स्थान इनके शिकार हो चुके हैं सारे विश्व मे इस्लाम व चर्च जहां पहुचे वहाँ की स्थानीय संस्कृति को समाप्त कर दिया यही हाल भारत और नेपाल की होने वाली है यदि हम सावधान नहीं हुए तो---! नारायणी नदी केवल नदी ही नहीं है यह हिन्दू समाज के श्रद्धा का केंद्र विंदु भी है इस कारण चर्च नारायणी के किनारे किनारे अपना जाल बुन रहा है इस संबेदन स्थिति को ध्यान मे रखकर इस रामानुज परंपरा की इस यात्रा को प्रारम्भ किया है, यह यात्रा केवल यात्रा नहीं है नारायणी के किनारे जितने विकाश खंड है उसके प्रत्येक गाँव मे "धर्म रक्षा समिति"बनाना संबेदन क्षेत्रों मे लाकेट,हनुमान चालीसा बाँटना यात्रा मे जगह जगह धर्म सभाएं करना,यह यात्रा हरिहरनाथ मंदिर से शुरू होती है वहाँ एक विशाल धर्म सभा तथा कुछ कलाकारों का मंचन और गंगा आरती का भव्य रूप दिखाई देता है प्रथम बार कार्यक्रम मे प्रारम्भ करने मा मुकुन्दराव पनशीकर और मा स्वांतरंजन जी पूरे समय उपस्थित रहे, यात्रा 765 किमी की है 24 स्थानों पर धर्म सभा सैकड़ों स्थानों पर स्वागत होता है धर्म सभा मे सामाजिक कार्यकर्ता वरिष्ठ राजनीतिज्ञ धार्मिक संत महात्मा संबोधित करते हैं।  

      यात्रा पाठ मे नेपाल तीन बिहार मे चार स्थानों पर आरती होती है हजारों की संख्या उपस्थिती रहती है धार्मिक दृढ़ता की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है यह नव दिवसीय यात्रा गण्डकी गंगा जी के संगम हरिहरनाथ मंदिर से निकल कर तिब्बत सीमा पर 1250 फिट की उचाई पर अवस्थित नारायणी के उद्गम स्थल मुक्तिनाथ तक 765 किमी की दूरी तय करती है,यात्रा पथ से जुड़े उत्तर बिहार के 16 खंडों एवं तीन नगरिया क्षेत्रों तथा नेपाल के 6 जिलों मे बिभिन्न प्रकार के धार्मिक साहित्य स्टिकर लाकेट होर्डिंग,फ्लेग्स पोस्टर बड़ी संख्या मे लगाए आते हैं,यात्रा की सफलता हेतु मार्ग मे अवस्थित सभी सोलह खंडों के 900 गाँव,98 वार्डों के लगसभी परिवारों मे संपर्क किया जाता है तथा संगठन की दृष्टि से सभी गावों मे 'धर्म रक्षा समिति'बनाई जाने का प्रयत्न किया जाता है,नेपाल का साधू संतों को बड़ी संख्या मे इस यात्रा मे जोड़ा गया है।

यात्रा पथ के तीर्थ---

हरिहरनाथ- जहां से यात्रा निकलती है हरिहरनाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध है यह स्थान शैव तथा वैष्णव का मिलन केंद्र है यहाँ हरी और हर दोनों का विग्रह एक साथ है गजेंद्र उद्धार हेतु भगवान यही स्थान पर अवतरित हुए थे इसी कारण हरिहरनाथ मंदिर बना है-। सोमेस्वरनाथ- नारायणी पथ पर ही सोमेसवार स्थान जिसका वर्णन महाभारत मे भी है यह पूर्वी चंपारण जिले के अरेराज मे अवस्थित है,बाल्मीकीनगर- जहां विश्व का आदि कबी महर्षि बाल्मीकी की तपस्थली है जहां यह स्थान भगवती सीता जी की शरण स्थली है वहीं लव-कुश पालन पोषण और प्रशिक्षण भूमि भी है यह स्थान नेपाल बार्डर पर अपने प्रार्क्रितिक सौंदर्य को समेटे हुए सैलानियों का जमघट बनाए रखता है,यहाँ बाघों का अभयारण्य है।

   त्रिवेणी- हरिहरनाथ के समान ही यहाँ तीन नदियों का संगम है यहीं पर सोनभद्रा,पूर्णभद्रा नारायणी मे मिलती हैं पुरानों के अनुसार यहीं 'ग्राह ने गज'को पकड़ा था जिसका युद्ध हरिहरनाथ तक हुआ ऐसी मान्यता है,देवघाट--- नारायण घाट के बगल देवघाट मे तृशूली,काली गण्डकी मिलती है इसे सदानीरा भी कहते हैं यहाँ सप्त गण्डकी भी है यह स्थान महाभारत कालीन है कुछ दिन पांडव अज्ञातवास मे यहाँ रहे थे यह नेपाल का प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है। दमौली- नेपाल के तनहु जिले का मुख्यालय है यहाँ लोकमान्यता अनुसार महाभारत कार सहित सभी ब्यासो की मूर्ति है कहा जाता है की व्यास जी ने कुछ रचनाए यहाँ लिखी थी। वेणी यह स्थान पोखरा के आगे म्याग्दी जनपद का मुख्यालय है प्रार्कृतिक रूप से चंद्रगोलकर चक्रशिला के रूप मे भगवान शिव के रूप मे गलेश्वर नाथ विराजमान हैं,यह भूमि ऋषि फुलाह,पुलस्त आदि ऋषियों की तपस्थली रही है।

 कागवेणी- मुक्तिनाथ मार्ग मे भगवान के अनन्य भक्त कागभुशुंडी का स्थान है यहाँ भगवान श्री राम ने भक्तराज कागभुशुंडि को आशीर्वाद दिया था यहाँ गया के समान ही पित्र तर्पण किया जाता है । 

मुक्तिनाथ- आर्यावर्त के 108 दिब्य क्षेत्रों मे से एक है जिसकी पुष्टि श्रीवैष्णव मत ने समय-समय पर की है इस दिब्य क्षेत्र की सीमा 48 वर्ग मिल है चारो धाम के पश्चात मान्यता है की मुक्तिनाथ का दर्शन अवस्यक है यह स्थान समुद्रतल से 12500 फिट है,यहाँ प्रमुख रूप से आंध्र,तमिलनाडू,केरल,कर्नाटक,महाराष्ट्र तथा गुजरात से अधिक संख्या मे तीर्थ यात्री जाते हैं।

 बिभिन्न बिभूतियों के विचार------

  जगद्गुरू शंकराचार्य ज्योतिष पीठाधीश्वर वसुदेवानंद सरस्वती,बद्रिका आश्रम,हिमालय- माताओं के अंदर धर्म की भावना अधिक होती है उन्हे अपने त्योहारों की जानकारी पुरुषों से अधिक रहती है,कब शिवरात्रि है कब प्रदोश है सबका पालन माताएँ करती हैं,सभी को शिखा सूत्र राखना चाहिए मै इस धर्म सभा मे निवेदन करता हूँ आदेश देता हूँ। जिसे मुगल नहीं कर सके,आतंकी नहीं कर सके,अंग्रेज़ नहीं कर सके,उसे हम कर रहे हैं,यह बड़ी शर्म की बात है । मै इस पवित्र भूमि मे आकर अपने को धन्य मानता हूँ,मै निवेदन करता हूँ कि इसाइयों के कुचक्र को समझें इस यात्रा के माध्यम से मतांतरण रोके इसी से धर्म कि रक्षा होगी,हरिहरनाथ भगवान मुक्तिनाथ हमारे सनातन धर्म कि रक्षा करें।

 जगद्गुरू रामानुजाचार्य श्री श्रीधराचार्य,अशर्फी भवन अयोध्या – गंगा जब गोमुख से निकलती है तो छोटी सी जलधारा के रूप मे रहती है ज्यों-ज्यों सागर कि ओर बढ़ती है त्यों त्यों विशाल होती जाती है,यह अपने प्रवाह क्षेत्र मे विशाल जलराशि लिए अनेकानेक सहायक नदियों को समाहित कर अपने गंतब्य को प्राप्त होती है,उसी प्रकार हरिहर क्षेत्र से प्रारम्भ यह यात्रा भी भविष्य मे गंगा के समान ही सभी को समेटे हुए विरत रूप धारण करेगी,धर्म के उन्नयन सर्वस्व को न्योछावर करने अपनी मातृभूमि,महापुरुषों के प्रति श्रद्धावान रहने की अवस्यकता है,पाश्चात्य अंधानुकरण से सतर्क रहें हमारी संस्कृति दिब्य है,पश्चिमी समाज अवसाद,कुंठा एवं भोग से ग्रस्त है,हमारे यहाँ बैकुंठ है बैकुंठ अर्थात जहां कुंठा समाप्त हो जाय,भारतवर्ष मे अष्ट बैकुंठ है जिसमे एक मुक्तिनाथ है।

 आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी चिंमैयानंद सरस्वती,हरिद्वार पूर्व गृह राज्य मंत्री भारत सरकार --- जहां धर्म की सत्ता होती है वहाँ अनाचार नहीं होता,सम्पूर्ण विश्व साक्षी है प्रयाग के कुम्भ मे एक महीने मे दिन 15 करोण श्रद्धालु आए थे एक भी बलात्कार,दुराचार की घटना नहीं हुई जबकि एक करोण की दिल्ली मे प्रति 25 मिनट पर औषत एक बलात्कार अनाचार व अन्य आपराधिक कुकृत्य की घटनाएँ होती है,हमारी संस्कृति मे कुमारी बालिकाओं को देवी मानकर पर्व त्योहारों मे पुजा करने की परंपरा है,यह धरती हमारी माँ है,हम यहीं जन्मते और मृत्यु को प्राप्त होते हैं,हम एक ही माँ के बेटे-बेटियाँ आपस मे अनाचार नहीं करते यही हमारा संस्कार हैं।

     अतः धर्माधारित शासन की आवस्यकता है,आज देश की अविरल गंगा,निर्मल गंगा की चर्चा होती है,सरकार द्वारा एक्शन प्लान तैयार किया जाता है,गंगा जी को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की मांग की जाती है क्या इससे गंगा बचेगी--!"गंगा तरंगम रमणीय जटा कलापं"?गंगा तो तभी बचेगी जब सुखी साबरमती को पुनः प्रवाहित करने वाला दृढ़ इक्षाशक्ति से युक्त भारत का प्रधानमंत्री होगा एक ही साथ उर्स की टोपी और उत्सव का टीका नहीं चलेगा,धर्मनिरपेक्षता की सच्ची कसौटी धर्म आधारित राज्य ही होगा इस तरह की यात्राओं से समाज मे धर्म भाव बढ़ता है।

      हमारे प्रेरक मा मुकुंदराव पंसीकर,अखिल भारतीय धर्मजागरण प्रमुख-- हज़ार वर्ष की पराधीनता विगत तेरह सौ वर्षों के आक्रमणीय भारत की संस्कृति,परंपरा,रीति-नीति,चिंतन,चरित्र,विचार और ब्यवहार सभी को प्रभावित किया है,भारत को अक्षुण बनाए रखने हेतु इस कार्य की यात्राओं के माध्यम से समाज मे व्याप्त भेदभाव- कुरीति को समाप्त कर समरस भाव प्रकटाएगे,हमे अपनी संख्या बढ़ाना है,जहां-जहां हिन्दू कम हुआ वह भाग अपने पास नहीं रहा,हमे अपनी पाचन क्रिया बढ़ानी होगी,विधर्मी हुए बंधुओं को स्वधर्म मे लाना होगा।

 डा कृष्णगोपाल जी सह सरकार्यवाह राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ--- यहाँ से मुक्तिनाथ तक जो भी तीर्थ पड़ेगा प्रत्येक स्थान पर धर्म सभा होगी,सभी माताओं से आग्रह है घर मे रामायण,गीता का पाठ करें,प्रत्येक घर मे तुलसी माता हो,हर घर मे पुजा-पाठ होता रहे,गाँव मे कोई गरीब चाहे किसी भी जाती का हो कोई हिन्दू छोटा बड़ा नहीं होता,किसी के घर मे आने से हमारा घर अपवित्र नहीं होता,कोई भी हिन्दू हमारे घर मे आए बैठे सभी पवित्र है,वह भगवान राम,भगवान कृष्ण की जय बोलता है,गंगा मे स्नान करता है,गाय को माता मानता है,कोई भी जाती है हमारा सहोदर है,हज़ार वर्ष के काल खंड मे कोई छोटी-मोटी गड़बड़ी आ गयी छोटी जाती- बड़ी जाती चलने लगा।

     हिन्दू समाज मे कोई छोटा बड़ा नहीं है,धीरे-धीरे अपने घर का वातावरण अच्छा करेगे,हमारे घर मे सबको प्रवेश मिलेगा सबको पनि मिलेगा सबको भोजन मिलेगा ये जाती ओ जाती खत्म कर देना है सभी हिन्दू हैं,अपने समाज मे कुछ लोग गरीब है ईसाई बरीबी का फायदा उठाकर धर्मभ्रष्ट करते हैं,धीरे-धीरे उनके हाथ से गीता -रामायण हटा देते हैं उनके हाथ मे बाइबिल पकड़ा देते हैं,इसे रोकना है,अपने-अपने गाँव मे कोई भी ब्यक्ति हमारा भाई व बहन किसी भी प्रकार से अपने हिन्दू धर्म,अपने हिन्दू संस्कृति हिन्दू समाज से बाहर न जाने पाये,अचानक कुछ लोग आकर हमारे लोगों को विधर्मी बना रहे हैं इस यात्रा के माध्यम से इसे रोकना है।

 डा बालमुकुंद जी अखिल भारतीय संगठन मंत्री इतिहास संकलन योजना -हिमालय से विंध्याचल के बीच मे यह भूमि भगवान विष्णु का निवास क्षीरसागर था यहीं समुद्र मंथन हुआ था,जिसका प्रमाण भागलपुर के पास मंदारचल पर्वत और देवघर के निकट वसुकीनाथ विराजमान हैं,हम बड़े सौभाग्यशाली हैं भगवान ने हमे इस क्षीरसागर मे जन्म दिया है,नवीनतम भूगर्भीय अनवेषण और पौराणिक ग्रन्थों के शास्त्रीय व्याख्या से नारायणी के उत्पत्ति के प्रमाण आए हैं,भूगर्भीय परिवर्तन के कारण ही क्षीरसागर नारायणी के रूप से प्रवाहमान है।

अन्य क्षेत्रों मे यात्राएं -----------

मा मुकुन्द राव ने जहां हरिहरनाथ मुक्तिनाथ सांस्कृतिक यात्राओं को प्रेरित किया वहीं उन्होने पूरे देश मे इस प्रकार की यात्राओं को प्रोत्साहित किया वे बोलते तो कम थे लेकिन सभी कार्यकर्ता को उत्साहित करने की क्षमता उनमे थी इसी कारण बिभिन्न प्रकार के आयाम और काम खड़ा हो गया।

            जयपुर प्रांत मे चलने वाली यात्राएं------

1-  बाबा लाल दास यात्रा--- बाबा लालदास का जन्म मेव जाती मे हुआ था (इस्लाम) उनके भक्त बड़ी संख्या मे अलवर,भरतपुर और हरियाणा के मेवात नूह,पलवल जिले मे मेव समाज हिन्दू जाती से धर्मांतरित हुई थी उनका मीणा जाती के 'दहगल'गोत्र के हैं यात्रा मे मेव जाती के लोगो का सहभाग रहता है बाबा लालदास का क्षेत्रपुर ग्राम रामगढ़ जिला मे बड़ा स्थान है,मेव हिन्दू और मुस्लिम दोनों समिति मे हैं 2005 मे मा इंद्रेश जी के मार्गदर्शन मे 'मेवात जन कल्याण समिति'का गठन कर यात्रा प्रारम्भ किया यात्रा 15 दिन इन्हीं के गांवों मे चलती है।

2-  मीन भगवान यात्रा – मीणा समाज का मूल मत्स्य अवतार से माना जाता है व महाभारत कालीन मत्स्य क्षेत्र मे मीणा जाती का निवास है मीणा समाज से मुसलमान हुई जाती ही मेव (मुस्लिम) है इसी समाज के वापसी हेतु इस यात्रा का आयोजन 2014 मे प्रारम्भ की गयी इस यात्रा का आयोजन मिनेश सेवा समिति है जिसके संयोजक भूतेन्द्र मीणा,यह यात्रा पाँच दिन की है यतर मे बीआईएस हज़ार के लगभग आते हैं ।

3-  क्षत्रिय गौरव रथ यात्रा--- शेखावटी क्षेत्र मे राजपूत जाती से धर्मांतरित जाती है जिसे कायमखानी (मुस्लिम) लगभग 16 लाख है इनकी घर वापसी हेतु 2015 से चितरंजन सिंह राठौर,राम सिंह शेखावत के प्रयास से क्षत्रिय सेवा समिति राजस्थान के तत्वधन मे यात्रा शुरू की गयी यह यात्रा छह दिन राजपूत बहुल क्षेत्रों मे चलती है उनके पुराने गौरव को याद दिलाने का कम यह यात्रा करती है प्रत्ये बार पाँच हज़ार से अधिक लोग सामील होते हैं।

4-  संत रबीदास यात्रा --- जयपुर जिले मे 'रेगर समाज'के इष्ट संत रबिदास हैं यह समाज बड़ी संख्या मे धर्मांतरित है धर्म जागरण के तत्वधन मे यह यात्रा की जाती है जहां-जहां रेगर समाज की बस्ती है वहाँ 5 दिन की यात्रा निकली जाती है बिभिन गवों मे भव्य स्वागत होता है यात्रा 2015 से शुरू की है।                                                                      

                                                                


दलित -मुस्लिम एकता, डॉ अम्बेडकर और हिन्दुत्व ----!

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           आज बड़ी संख्या में दलित चिंतक हो गए हैं जिन्हें न तो दलित संस्कृति के बारे में जानकारी है न ही उनकी परंपरा का ज्ञान, एक मेधावी चिंतक विचारक महाराष्ट्र में डॉ भीम राव रामजी पैदा हुए वे इतने मेधावी थे कि उनके गुरु ने अपना गोत्र नाम दे दिया वे डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर हो गए इतने प्रतिभा संपन्न थे कि उनकी शिक्षा लन्दन में हो बड़ोदरा राजा ने उन्हें क्षात्रवृति दिया और वे अपने गुरु के आशीर्वाद और वड़ोदरा राज़ कि. सहायता से भारत ही नहीं विश्व के ख्याति नाम चिंतक हो गए, वे विचारक थे भारत के दबे कुचले समाज के बारे में करुणा थी, उन्होंने कहा कि वैदिक काल में छुवा -छूत, भेद -भाव नहीं था ये इस्लामिक काल की देंन है, फिर क्या था वे बढ़ते गए संत कबीर के तरफ, वे बढ़ते गए संत रविदास की ओर, वे बढ़ते गए महर्षि बाल्मीकि की ओर, वे बढ़ते गए वैदिक ऋषि दीर्घतमा, कवष ऐलूष की ओर, उनके अंदर हीन भावना  छू तक नहीं गयी थी ।
           डा अम्बेडकर ने कहा "हम मुसलमानों के साथ नहीं जा सकते मुसलमानों का भाई चारा केवल मुसलमानों के लिए है न की अन्य समाज के लिए"वे हमारे सीधे- साधे समाज को निगल जायेंगे हमारी परंपरा संस्कृति समाप्त हो जाएगी, हमारे वैदिक वांग्मय में छुवा छूत, भेद-भाव नहीं था ये इस्लामिक काल की देंन है हम इसी समाज में रहकर इसे दूर करेगे उन्होंने कहा वेदों में जिन शुद्र का वर्णन है वे आज के शुद्र नहीं आज के शुद्र इस्लाम की देन है, भारतीय दर्शन की ही देन है कि दलित समाज में जाग्रति आयी है वे चौतरफा उन्नति कर रहे हैं वे उन सभी सुख सुबिधाओं का उपयोग कर रहे हैं जिसे तथा कथित सवर्ण समाज कर रहा है हिन्दू समाज में भेद- भाव लगभग समाप्त सा हो गया है हाँ अभी गांव इससे उबर नहीं पा रहे हैं लेकिन उन्होंने राह पकड़ ली है हाँ कुछ राजनैतिक दल इसमे वाधा आज भी बने हुए हैं जिन्होंने ६०-६५ वर्षों तक शासन किया है वे इसके लिए जिम्मेदार हैं, जो दलितों के बारे में अधिक सहानुभूति दिखाते हैं जैसे वामपंथी दल, समाजवादी और बसपा जो केवल बोलते है इनके लिए कुछ करते नहीं, क्या इन लोगो ने दलितों की उन्नति और विकास के लिए कुछ किया तो इसका उत्तर एक ही है कि कुछ भी नहीं--? कहीं दलित मुस्लिम एकता के नाम पर इन्हे देश विरोधी ताकतों के साथ जोड़ने का प्रयास तो नहीं ! भारत तेरे टुकड़े होंगे "इंशा अल्ला- इंशा अल्ला"का नारा लगाने वाले इस्लामवादी और वामपंथी दलित मुद्दों को हाईजैक कर कुछ दूसरा ही जामा पहनाने का प्रयत्न कर रहे हैं कई अतिवादी संगठन दलितों को हिन्दूवाद से बचाने के नाम पर भारत के खिलाफ जंग को भी न्यायसंगत बताने लगे हैं, इसी तरह 'चर्च तत्व'दलितों के खिलाफ होने वाले भेद-भाव के नाम पर भारत पर प्रतिवन्ध लगाने की पश्चिमी देशों मे मांग करते हैं इनसे सावधान रहने और इन्हे पहचानने की जरूरत है।      
           इसके उलट जिसे दलित विरोधी सिद्ध किया जा रहा है (आरएसएस) इन्ही दलित जन जतियों के बीच एक लाख सेवा कार्य करता है जिसमे शिक्षा, संस्कार और स्वस्थ द्वारा उनके उन्नति व बराबरी का मार्ग प्रसस्त होता दिख रहा है इस कारण केवल भाषण नहीं तो ब्यवहार के द्वारा होना चाहिए, जहां देश के विकाश मे दलितों की सहभागिता है वहीं समाज मे समरसता हेतु लंबे संघर्ष का इतिहास भी है, आखिर वैदिक ऋषि दीर्घतमा, कवश एलुष, महर्षि वाल्मीकि, संत रविदास, संत कबीर दास और डा अंबेडकर ने संघर्ष कर समाज मे उच्च स्थान प्राप्त किया उसका सिद्धान्त क्या था ? क्या ये इस्लाम मे हो सकता था या ईसाईयत मे संभव है तो नहीं -----!
        "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ती" ---------
        यह ऋग्वेद का मंत्र है जिसमे बहुदेव उपासना एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को समर्पित होती है यहाँ भगवान ने हमे समान आगे बढ़ने प्रगति करने शास्त्रार्थ करने का अवसर दे लोकमत का भाव पैदा किया, देवता बहुत हो सकते हैं उसकी शक्तियाँ विबिध हो सकती हैं किन्तु वे एक ही परमशक्ति के अधीन है यही एकम है, इसी को भगवान कृष्ण ने गीता मे कहा तुम किसी प्रकार से किसी कि पूजा करते हो वह हमे प्राप्त होता है, इसी आधार पर हिन्दू धर्म मे मत, पंथ, संप्रदाय, दर्शन तथा विचार विकसित हुए, वे सभी इसी ऋग्वेद, गीता से प्रेरित हैं, मौलिक सिद्धान्त "एक विराट पुरुष"की संकल्पना जो सदैव जोड़ने तथा गंगाजी के समान शुद्ध रहने की प्रक्रिया, इसी कड़ी को हमारे चिंतकों ने आगे बढ़ाते हुए कहा ----
            सर्वेभवन्तु सुखिना सर्वेसन्तु नीरामया।
            सर्वेभद्राणी पश्यंतु माकश्चित दुख भागभवेत॥
            महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि यह कोई कामना नहीं है वरन ईश्वर का निर्देश है कि सबसे सुखी वही ब्यक्ति होगा जो अपना सम्पूर्ण जीवन दूसरों को सुखी देखने मे लगा देता है, यही हिन्दू धर्म की सर्वमान्य, सर्व कल्याणकारी भावना है इसी का अनेक प्रकार से भारत के सभी दर्शन व सभी धार्मिक ग्रन्थों मे प्रतिपादित किया गया है।
           गीता मे भगवान कहते हैं ----- "ते प्राप्नुवंति मामेव सर्वभूतहिते रताः"॥ (गीता 12-4) 
           अर्थात "सभी की भलाई मे जो रत हैं वे मुझको ही प्राप्त होते हैं", इसी भाव को वेदब्यास ने भी अपने शब्दों मे ब्याक्त किया है "परोपकारा पुण्याय पापाय परपीडनम"दूसरों पर उपकार करना ही पुण्य तथा दूसरे को दुख देना ही पाप है, स्वामी विवेकानंद कहते हैं सब जग सुखी रहे ऐसी दृढ़ इच्छा शक्ति रखने से हम सुखी होते हैं, गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं "परहित सरिस धर्म नहिं भाई", यही हिन्दू धर्म है इससे विकसित स्वरूप को हिन्दू संस्कृति कहते हैं।
           कहीं कोई भेद नहिं -------
           ईशा वास्यमिद सर्व यत्किंचित जगत्यान जगत।
           तेन तक्तेन भूञ्जिथामा गृधह कस्य स्विद्धनम ॥
अर्थात सम्पूर्ण जगत मे ईश्वर ब्याप्त है ईश्वर को साथ रखते हुए त्याग पूर्ण इसका उपयोग करो इसमे आसक्त मत होवों भारतीय दर्शन के इस मंत्र की प्रथम पंक्ति ने ही मानवीय समाज रचना के ताने-बाने की आधार शिला रख दी। ऋषि यज्ञवल्क्य इसी विचार को "एष त आत्मा सर्वातरा" (बृहदारण्यकों उपनिषद 3-4-2) अर्थात जो आत्मा मेरे अंदर है वही सभी के अंदर है "सम सर्वेषु तिश्ठंत परमेश्वरम" (गीता 13-27) अर्थात सभी के अंदर ईश्वर संभव से विराजमान है इसी सत्य को बारंबार ग्रन्थों मे ऋषियों ने कहा है ।
         "ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदों मध्यमासों महसा वि वावृधु"॥ (ऋग्वेद 5-59-6)  
          अर्थात पृथ्वी पुत्रों मे) उनमे -हममे कोई श्रेष्ठ नहीं कोई कनिष्ठ नहीं वे हम समान हैं मिलकर अपनी अपनी उन्नति करते हैं एक कदम और आगे चलकर ऋषि कहते हैं हम सभी भाई रूप मे एक दूसरे को आगे बढ़ाते हैं, इसी मानवता व स्वतन्त्र विचार को लेकर आदि काल से हिन्दू समाज को बिना किसी विकृति के आगे बढ़ता रहा और बीच के काल मे जब बौद्ध विचार वढा तो सभी ग्रन्थों का लोप प्राय हो गया प्रतिकृया मे ऋषि विचार को भ्रमित करने का प्रयास किया गया परिणाम देश गुलामी के आगोश मे आ गया, इस्लामिक काल मे जो धर्म रक्षक थे उन्हे ही पद्दलित करने का प्रयास किया गया।  
          एकता की विचित्र बातें --------
          "दलित मुस्लिम भाई-भाई हिन्दू जाती कहाँ से आयी"- "इस्लाम जिंदावाद, अंबेडकर जिंदवाद"के पोस्टर लगाने वाले संगठन क्या इस्लाम और मुस्लिम राजनीति को लेकर अंबेडकर की लेखनी पर अपना विचार स्पष्ट करेंगे--! अगर दलित संगठन यह मानते हैं कि अंबेडकर द्वारा दिखाये गए "धम्म मार्ग"भारत के लिए उचित है तो वे कभी इसे लेकर मुस्लिम समाज मे क्यों नहीं गए ? अंबेडकर ने स्पष्ट लिखा है कि इस्लाम ने ही भारत वर्ष से "बौद्ध धर्म"का सम्पूर्ण विनाश किया था मध्य काल मे इस्लामी हमलों ने बड़े पैमाने पर "बौद्ध मठों"और "विहारों"का विध्वंश किया और बौद्ध जनता का जबरन धर्मांतरण भी, क्या उनकी ओर से यह बताया जायगा कि भारत के विभाजन पर अंबेडकर, सावरकर और आरएसएस के विचारों मे कितना अंतर है।
               दरअसल दलित-मुस्लिम एकता की पुरी राजनीति ही अंबेडकर के "प्रबुद्ध भारत"की कल्पना के विरुद्ध है इसमे विदेशी और चर्च का षणयंत्र दिखाई देता है, ऐसे विचार डॉ अंबेडकर के विचारों का हनन भी है, क्या किसी पठान, सेख और सैयद के यहाँ कोई छोटी जाती का मुसलमान बैठने को पाता है--! शिया को सुन्नी की मस्जिद मे जाने नहीं देता, तो बहाई को किसी शिया मस्जिद मे, इतना ही नहीं किसी भी पठान की मस्जिद मे कोई जुलाहा, धुनिया व अन्य मुसलमान जा सकता है क्या-? गया के अंदर एक ह्वाइट हाउस मस्जिद है जहां जो भूमिहार से मुसलमान हुए हैं वही जा सकते हैं, यह केवल ऊपर से दिखाई देने वाली बात है आज असली मुसलमान होने का युद्ध जारी है सभी असली खलीफा बनने के लिए आतंकवाद मे विश्व को झोकने को तैयार हैं वे दलितों के साथ क्या न्याय करेंगे-?
             क्या दलित मुस्लिम एकता संभव है -----!
             वास्तविकता यह है की ये दलित नहीं ये तो धर्म रक्षकों की संताने हैं यही बात बार-बार डा आबेड़कर ने कही है क्या उसे नजरंदाज किया जा सकता है--! कहीं ऐसा तो नहीं-- "एक बार महात्मा गांधी ने अली वंधुओं से पूछा की हिन्दू मुस्लिम एकता कैसे हो सकती है तो आली वंधुओं ने उत्तर दिया जिस दिन सभी हिन्दू इस्लाम स्वीकार कर लेंगे उसी दिन हिन्दू मुस्लिम एकता हो जाएगी", ये सेकुलर प्रतिकृया वादी नेता कहीं दलित-मुस्लिम एकता के नाम पर उन्हे अपने पूर्वजों व अपनी संस्कृति से दूर तो नहीं करने चाहते, इस पर भी विचार करने की अवस्यकता है, आज नए-नए दलित चिंतक पैदा हो गए हैं जिनहे अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं है वे केवल प्रतिकृया मे हैं आज भूमंडलीकरण के दौर मे वह अपने मानवीय सम्मान के प्रति सजग और सचेत है किसी भी जातीय श्रेष्ठता को अस्वीकार करता है मध्यम मार्ग पर चलकर सभी मे मानवीय (हिन्दुत्व) संवेदना का आलंगन करने को आतुर है। 
              धर्म रक्षकों की सन्तानें-----!
              हम सभी को ज्ञान होना चाहिए कि वैदिक कल मे ही नहीं बल्कि महाभारत काल मे ये जातियाँ नहीं थी उन शास्त्रों मे वंश का वर्णन मिलता है इस्लामिक हमले मे जो जातियाँ धर्म रक्षक थी वही काल के गाल मे समा गईं मंदिरों की रक्षा व पूजा का भार क्षत्रियों व पुरोहितों का था वे पराजित हुए उन्हे या तो "इस्लाम स्वीकार करो या मैला उठाओ"उन्होने धर्म वचाया वे मुस्लिम दरवार मे काम करते थे लेकिन उनका छुवा पानी भी नहीं पीते थे धीरे-धीरे वे अछूत हो गए उनका मान भंग हुआ भंगी कहलाए, संत रविदास "चमरशेन वंश"के राज़ा थे स्वामी रामानन्द के शिष्य सन्यासी थे दिल्ली शासक सिकंदर लोदी से संघर्ष मे पराजित लेकिन भारत मे सर्वमान्य साधू सर्वाधिक शिष्य थे इनके पास, सिकंदर लोदी ने सदन कसाई को रविदास के पास मुसलमान बनाने हेतु भेजा वे इस्लाम नहीं स्वीकार करने की सज़ा चांडाल घोषित उनके शिष्यों ने भी स्वयं को चांडाल घोषित कर लिया "चांडाल"का अपभ्रंश "चमार"हो गया धीरे-धीरे वे अछूत हो गए लेकिन धर्म नहीं छोड़ा, बिहार मे पासवान जाती के लोग हैं वे गहलोत क्षत्रिय हैं गयाजी के "विष्णुपाद मंदिर"की सुरक्षा हेतु राणा लाखा के नेतृत्व मे आए थे यहीं वस गए मुसलमानों से सुरक्षित हेतु 'सुवर'पालना शुरू कर दिया लड़की की विदाई के समय मुगलों के डर डोली मे छौना रखते वे धीरे धीरे पददलित हो गए और गहलौत से वे 'दुसाद'कहलाए, अछूत होना स्वीकार किया धर्म नहीं छोड़ा, वैदिक काल मे ऋषि दीर्घतमा, कवष एलुष, एतरेय महिदास आगे आए तो जहां त्रेतायुग (रामायण काल) मे महर्षि वाल्मीकि ने रामायण लिखकर हिंदुधर्म की रक्षा की, वहीं द्वापर- कलयुग के संधि काल (महाभारत काल) मे वेदव्यास ने महाभारत एवं पुराणों को लिख धर्म की रक्षा की, इसी परंपरा की रक्षा करते हुए संत रविदास तथा संत कबीरदास समाज को जागृत कर खड़ा किया। 
        स्वामी दयानन्द सरस्वती की राह को आसान करते हुए डॉ भीमराव अंबेडकर ने सामाजिक विकृतियों को दूर करते देश के राष्ट्रिय चरित्र को उजागर किया, उन्होने कहा ''मै ईसाई और इस्लाम मत नहीं स्वीकार करुगा नहीं तो हमारी निष्ठा भारत के प्रति न होकर मक्का, मदीना और योरूशलम हो जाएगी इस कारण मै अपने भारतीय धर्म को स्वीकार करता हूँ", दलित मुस्लिम एकता की बात करने वालों को सबसे अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम को पढ़ना समझना चाहिए, दलित चिंतकों को विचार करना चाहिए कि ये दीर्घतमा, कवष एलुष, वाल्मीकि, संत रविदास, संत कबीरदास, भीमराव अंबेडकर और बाबू जगजीवन राम की सन्तानें है जो अपने पूर्वजों को कलंकित नहीं होने देगे, देश के तोड़क नहीं रक्षक सावित होंगे ॥       

शिक्षक दिवस पर विशेष --------------------!!

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*शिक्षक दिवस*

        बचपन से किताबें पढने के शौकीन डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का जन्म तमिलनाडु के तिरुतनी गॉव में 5 सितंबर 1888 को हुआ था। साधारण परिवार में जन्में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का बचपन तिरूतनी एवं तिरूपति जैसे धार्मिक स्थलों पर बीता । वह शुरू से ही पढाई-लिखाई में काफी रूचि रखते थे, उनकी प्राम्भिक शिक्षा क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल में हुई और आगे की पढाई मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में पूरी हुई। स्कूल के दिनों में ही डॉक्टर राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश कंठस्थ कर लिए थे , जिसके लिए उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान दिया गया था। कम उम्र में ही आपने स्वामी विवेकानंद और वीर सावरकर को पढा तथा उनके विचारों को आत्मसात भी किया। आपने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और छात्रवृत्ति भी प्राप्त की । क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने भी उनकी विशेष योग्यता के कारण छात्रवृत्ति प्रदान की। डॉ राधाकृष्णन ने 1916 में दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया और मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में इसी विषय के सहायक प्राध्यापक का पद संभाला।
 ऐसी महान विभूति का जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाना हम सभी के लिये गौरव की बात है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के व्यक्तित्व का ही असर था कि 1952 में आपके लिये संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का पद सृजित किया गया। स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति जब 1962 में राष्ट्रपति बने तब कुछ शिष्यों ने एवं प्रशंसकों ने आपसे निवेदन किया कि  वे उनका जनमदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं। तब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने कहा कि मेरे जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस करूंगा। तभी से 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ज्ञान के सागर थे। उनकी हाजिर जवाबी का एक किस्सा आपसे share कर रहे हैः—
एक बार एक प्रतिभोज के अवसर पर अंग्रेजों की तारीफ करते हुए एक अंग्रेज ने कहा – “ईश्वर हम अंग्रेजों को बहुत प्यार करता है। उसने हमारा निर्माण बङे यत्न और स्नेह से किया है। इसी नाते हम सभी इतने गोरे और सुंदर हैं।“ उस सभा में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी भी उपस्थित थे। उन्हे ये बात अच्छी नही लगी अतः उन्होने उपस्थित मित्रों को संबोधित करते हुए एक मनगढंत किस्सा सुनाया—
“मित्रों, एक बार ईश्वर को रोटी बनाने का मन हुआ उन्होने जो पहली रोटी बनाई, वह जरा कम सिकी। परिणामस्वरूप अंग्रेजों का जन्म हुआ। दूसरी रोटी कच्ची न रह जाए, इस नाते भगवान ने उसे ज्यादा देर तक सेंका और वह जल गई। इससे निग्रो लोग पैदा हुए। मगर इस बार भगवान जरा चौकन्ने हो गये। वह ठीक से रोटी पकाने लगे। इस बार जो रोटी बनी वो न ज्यादा पकी थी न ज्यादा कच्ची। ठीक सिकी थी और परिणाम स्वरूप हम भारतीयों का जन्म हुआ।”
ये किस्सा सुनकर उस अग्रेज का सिर शर्म से झुक गया और बाकी लोगों का हँसते हँसते बुरा हाल हो गया।
मित्रों, ऐसे संस्कारित एवं शिष्ट माकूल जवाब से किसी को आहत किये बिना डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने भारतीयों को श्रेष्ठ बना दिया। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का मानना था कि व्यक्ति निर्माण एवं चरित्र निर्माण में शिक्षा का विशेष योगदान है। वैश्विक शान्ति, वैश्विक समृद्धि एवं वैश्विक सौहार्द में शिक्षा का महत्व अतिविशेष है। उच्चकोटी के शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को भारत के प्रथम राष्ट्रपति महामहीम डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत रत्न से सम्मानित किया।

डॉ. राधाकृष्णन कहा करते थे-
पुस्तकें वो साधन हैं जिनके माध्यम से हम विभिन्न संस्कृतियों  के बीच पुल का निर्माण कर सकते हैं।

गांधी वध की असलियत -------?

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        ऐतिहासिक पोस्ट ---------
         ऐसा क्या कारण था की जिससे गांधी और नेहरू को नेतृत्व का खतरा दिखाई देता था उन्हे अलग-थलग ही नहीं बगल कर दिया गया चाहे वे लोकमान्य तिलक हों या सावरकर अथवा डॉ भीमराव अंबेडकर ऐसा नहीं की यह सब मिलकर केवल सुभाष चन्द्र बॉस को ही समाप्त करने का प्रयत्न किए बल्कि ऐसे बहुत से राशत्रवादी, क्रांतिकारियों सभी को मुख्य धारा से अलग-थलग करने का प्रयास इस विषय पर नेहरू और गांधी मे कभी कोई मत-भेद नहीं हुआ उनके साथ केवल और केवल सरदार बल्लभ भाई पटेल ही किसी तरह बचे रह गए आखिर ये सब किसके इशारे पर और क्यों---?
          आखिर क्या कारण है राष्ट्रवादियों का एक तपका गोडसे को हीरो मानता है कुछ तथ्य इस प्रकार है-----

क्या थी विभाजन की पीड़ा ? विभाजन के समय हुआ क्या क्या ? विभाजन के लिए क्या था विभिन्न राजनैतिक पार्टियों दृष्टिकोण ? क्या थी पीड़ा पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थियों की … मदनलाल पाहवा और विष्णु करकरे की? क्या थी गोडसे की विवशता ? क्या गोडसे नही जानते थे की आम आदमी को मारने में और गांधी जी को मारने में क्या अंतर है ? क्या होगा परिवार का ? कैसे -कैसे कष्ट सहने पड़ेंगे परिवार और सम्बन्धियों को और मित्रों को ? क्या था गांधी वध का वास्तविक कारण ? क्या हुआ 30 जनवरी की रात्री को … पुणे के ब्राह्मणों के साथ ? क्या था सावरकर और हिन्दू महासभा का चिन्तन ------? क्या हुआ गोडसे के बाद नारायण राव आप्टे का .. कैसी नृशंस फांसी दी गयी उन्हें l
यह लेख पढने के बाद यह समझने का अवसर मिलेगा की कैसे उतारेगा भारतीय जनमानस नाथूराम गोडसे जी का कर्ज….!
       आइये इन सब सवालों के उत्तर खोजें ….
        पाकिस्तान से दिल्ली की तरफ जो रेलगाड़िया आ रही थी, उनमे हिन्दू इस प्रकार बैठे थे जैसे माल की बोरिया तर- ऊपर रखी जाती हैं, अन्दर ज्यादातर मरे हुए ही थे, गला कटे हुए, रेलगाड़ी के छत पर पर बहुत से लोग बैठे हुए थे, डिब्बों के अन्दर सिर्फ सांस लेने भर की जगह बाकी थी, बैलगाड़िया ट्रक्स हिन्दुओं से भरे हुए थे, रेलगाड़ियों पर लिखा हुआ था,,” आज़ादी का तोहफा ” जिन ट्रेनों में जो लाशें भरी हुई थी उनकी हालत कुछ ऐसी थी कि उनको उठाना मुश्किल था, दिल्ली पुलिस को फावड़ें में उन लाशों को भरकर उठाना पड़ा, ट्रक में भरकर किसी निर्जन स्थान पर ले जाकर, उन पर पेट्रोल के फवारे मारकर उन लाशों को जलाना पड़ा इतनी विकट हालत थी उन मृतदेहों की… भयानक बदबू ----सियालकोट से खबरे आ रही थी की वहां से हिन्दुओं को निकाला जा रहा हैं, उनके घर, उनकी खेती, पैसा, सोना-चाँदी, बर्तन सब मुसलमानों ने अपने कब्जे में ले लिए थे l मुस्लिम लीग ने सिवाय कपड़ों के कुछ भी ले जाने पर रोक लगा दी थी. किसी भी गाडी पर हमला करके हाथ को लगे उतनी महिलाओं- बच्चियों को बलात उठा लिया गया, बलात्कार किये बिना एक भी हिन्दू स्त्री वहां से वापस नहीं आ सकती थी … बलात्कार किये बिना…..? जो स्त्रियाँ वहां से जिन्दा वापस आई वो अपनी वैद्यकीय जांच करवाने से डर रही थी….
डॉक्टर ने पूछा क्यों ??? उन महिलाओं ने जवाब दिया… हम आपको क्या बताये हमें क्या हुआ हैं ? हमपर कितने लोगों ने बलात्कार किये हैं हमें भी पता नहीं हैं…उनके सारे शरीर पर चाकुओं के घाव थे। 
         “आज़ादी का तोहफा”-------
          जिन स्थानों से लोगों ने जाने से मना कर दिया, उन स्थानों पर हिन्दू स्त्रियों की नग्न यात्राएं ( प्रदर्शन ) निकाली गयीं, बाज़ार सजाकर उनकी बोलियाँ लगायी गयीं और उनको दासियों की तरह खरीदा बेचा गया l
1947 के बाद दिल्ली में 400000 हिन्दू निर्वासित आये, और इन हिन्दुओं को जिस हाल में यहाँ आना पड़ा था, उसके बावजूद पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपये देने ही चाहिए ऐसा महात्मा गाँधी जी का आग्रह था … क्योकि एक तिहाई भारत के तुकडे हुए हैं तो भारत के खजाने का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान को मिलना चाहिए था जबकि 24% अवदी को 30% जमीन दी गयी , विधि मंडल ने विरोध किया, पैसा नहीं देगे….और फिर बिरला भवन में महात्मा जी अनशन पर बैठ गए…..पैसे दो, नहीं तो मैं मर जाउगा….एक तरफ अपने मुहँ से ये कहने वाले महात्मा जी, की हिंसा उनको पसंद नहीं हैं l दूसरी तरफ जो हिंसा कर रहे थे उनके लिए अनशन पर बैठ गए… क्या वह हिंसा नहीं थी .. अहिंसक आतंकवाद की आड़ में------ दिल्ली में हिन्दू निर्वासितों के रहने की कोई व्यवस्था नहीं थी, इससे ज्यादा बुरी बात ये थी की दिल्ली में खाली पड़ी मस्जिदों में हिन्दुओं ने शरण ली तब बिरला भवन से महात्मा जी ने भाषण में कहा की दिल्ली पुलिस को मेरा आदेश हैं मस्जिद जैसी चीजों पर हिन्दुओं को नहीं रहना चाहिए l निर्वासितों को बाहर निकालकर मस्जिदे खाली करे..क्योंकि महात्मा जी की दृष्टी में जान सिर्फ मुसलमानों में थी हिन्दुओं में नहीं… जनवरी की कडकडाती ठंडी में हिन्दू महिलाओं और छोटे छोटे बच्चों को हाथ पकड़कर पुलिस ने मस्जिद के बाहर निकाला, गटर के किनारे रहो लेकिन छत के निचे नहीं l
        क्योकि… तुम हिन्दू हो….
         4000000 हिन्दू भारत में आये थे, ये सोचकर की ये भारत हमारा हैं….ये सब निर्वासित गांधीजी से मिलने बिरला भवन जाते थे तब गांधीजी माइक पर से कहते थे क्यों आये यहाँ अपने घर जायदाद बेचकर, वहीँ पर अहिंसात्मक प्रतिकार करके क्यों नहीं रहे ?? यही अपराध हुआ तुमसे अभी भी वही वापस जाओ..और ये महात्मा किस आशा पर पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपये देने निकले थे ? कैसा होगा वो मोहनदास करमचन्द गाजी उर्फ़ गंधासुर … कितना महान … जिसने बिना तलवार उठाये … 35 लाख हिन्दुओं का नरसंहार करवाया, 2 करोड़ से ज्यादा हिन्दुओं का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ और उसके बाद यह संख्या 10 करोड़ भी पहुंची, 10 लाख से ज्यादा हिन्दू नारियों को खरीदा बेचा गया, 20 लाख से ज्यादा हिन्दू नारियों को जबरन मुस्लिम बना कर अपने घरों में रखा गया, तरह तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाओं के बाद
ऐसे बहुत से प्रश्न, वास्तविकताएं और सत्य तथ्य हैं जो की 1947 के समकालीन लोगों ने अपनी आने वाली पीढ़ियों से छुपाये, हिन्दू कहते हैं की जो हो गया उसे भूल जाओ, नए कल की शुरुआत करो …
परन्तु इस्लाम के लिए तो कोई कल नहीं .. कोई आज नहीं …वहां तो दार-उल-हर्ब को दार-उल-इस्लाम में बदलने का ही लक्ष्य है पल.. प्रति पल
         विभाजन के बाद एक और विभाजन का षड्यंत्र …
         आपने बहुत से देशों में से नए देशों का निर्माण देखा होगा, U S S R टूटने के बाद बहुत से नए देश बने, जैसे ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान आदि … परन्तु यह सब देश जो बने वो एक परिभाषित अविभाजित सीमा के अंदर बने, और जब भारत का विभाजन हुआ .. तो क्या कारण थे की पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान बनाए गए… क्यों नही एक ही पाकिस्तान बनाया गया… या तो पश्चिम में बना लेते या फिर पूर्व में, परन्तु ऐसा नही हुआ …. यहाँ पर उल्लेखनीय है की मोहनदास करमचन्द ने तो यहाँ तक कहा था की पूरा पंजाब पाकिस्तान में जाना चाहिए, बहुत कम लोगों को ज्ञात है की 1947 के समय में पंजाब की सीमा दिल्ली के नजफगढ़ क्षेत्र तक होती थी … यानी की पाकिस्तान का बोर्डर दिल्ली के साथ होना तय था … मोहनदास करमचन्द गाँधी के अनुसार, नवम्बर 1968 में पंजाब में से दो नये राज्यों का उदय हुआ .. हिमाचल प्रदेश और हरियाणा, पाकिस्तान जैसा मुस्लिम राष्ट्र पाने के बाद भी जिन्ना और मुस्लिम लीग चैन से नहीं बैठे …
उन्होंने फिर से मांग की … की हमको पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान जाने में बहुत समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं l
1. पानी के रास्ते बहुत लम्बा सफर हो जाता है क्योंकि श्री लंका के रस्ते से घूम कर जाना पड़ता है l
2. और हवाई जहाज से यात्राएं करने में अभी पाकिस्तान के मुसलमान सक्षम नही हैं l इसलिए …. कुछ मांगें रखी गयीं 1. इसलिए हमको भारत के बीचो बीच एक Corridor बना कर दिया जाए….
2. जो लाहोर से ढाका तक जाता हो … (NH – 1)
3. जो दिल्ली के पास से जाता हो …
4. जिसकी चौड़ाई कम से कम 10 मील की हो … (10 Miles = 16 KM)
5. इस पूरे Corridor में केवल मुस्लिम लोग ही रहेंगे l
30 जनवरी को गांधी वध यदि न होता, तो तत्कालीन परिस्थितियों में बच्चा बच्चा यह जानता था की यदि मोहनदास करमचन्द 3 फरवरी, 1948 को पाकिस्तान पहुँच गया तो इस मांग को भी …मान लिया जायेगा
तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार मोहनदास करमचन्द किसी की बात सुनने की स्थिति में था न ही समझने में …और समय भी नहीं था जिसके कारण हुतात्मा नाथूराम गोडसे जी को गांधी वध जैसा अत्यधिक साहसी और शौर्यतापूर्ण निर्णय लेना पड़ा, उस समय दिल्ली कि सड़कों पर नारा लगता था कि "गांधी मरता है तो मरने दो"इतना ही नहीं उस समय एक बड़ी संख्या थी जो गांधी जी की हत्या करना चाहती थी वे अपने- अपने घरों मे वंद थे, यहाँ यह सार्थक चर्चा का विषय होना चाहिए की हुतात्मा पंडित नाथूराम गोडसे जीने क्या एक बार भी नहीं सोचा होगा की वो क्या करने जा रहे हैं ? किसके लिए ये सब कुछ कर रहे हैं ?
उनके इस निर्णय से उनके घर, परिवार, सम्बन्धियों, उनकी जाती और उनसे जुड़े संगठनो पर क्या असर पड़ेगा ?
          घर परिवार का तो जो हुआ सो हुआ …. 
          जाने कितने जघन्य प्रकारों से समस्त परिवार और सम्बन्धियों को प्रताड़ित किया गया, परन्तु ….. अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले मोहनदास के कुछ अहिंसक आतंकवादियों ने 30 जनवरी, 1948 की रात को ही पुणे में 6000 चित पावन ब्राह्मणों को चुन-चुन कर घर से निकाल निकाल कर जिन्दा जलाया, 10000 से ज्यादा ब्राह्मणों के घर और दुकानें जलाए गए, सोचने का विषय यह है की उस समय संचार माध्यम इतने उच्च कोटि के नहीं थे, विकसित नही थे … फिर कैसे 3 घंटे के अंदर- अंदर इतना सुनियोजित तरीके से इतना बड़ा नरसंहार कर दिया गया … सवाल उठता है की … क्या उन अहिंसक आतंकवादियों को पहले से यह ज्ञात था की गांधी वध होने वाला है ? जस्टिस खोसला जिन्होंने गांधी वध से सम्बन्धित केस की पूरी सुनवाई की… 35 तारीखें पडीं l अदालत ने निरीक्षण करवाया और पाया नाथूराम गोडसे जी की मानसिक दशा को तत्कालीन चिकित्सकों ने एक दम सामान्य घोषित किय, पंडित जी ने अपना अपराध स्वीकार किया पहली ही सुनवाई में और अगली 34 सुनवाइयों में कुछ नहीं बोले … सबसे आखिरी सुनवाई में पंडित जी ने अपने शब्द कहे “”
गाँधी वध के समय न्यायमूर्ति खोसला से नाथूराम ने अपना वक्तव्य स्वयं पढ़ कर सुनाने की अनुमति मांगी थी और उसे यह अनुमति मिली थी, नाथूराम गोडसे का यह न्यायालयीन वक्तव्य भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था, इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध नाथूराम गोडसे के भाई तथा गाँधी वध के सह अभियुक्त गोपाल गोडसे ने ६० वर्षों तक वैधानिक लडाई लड़ी और उसके फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायलय ने इस प्रतिबन्ध को हटा लिया तथा उस वक्तव्य के प्रकाशन की अनुमति दे दी।
नाथूराम गोडसे ने न्यायलय के समक्ष गाँधी वध के जो १५० कारण बताये थे उनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
1. अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के खलनायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से मना कर दिया।
2. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचाएं, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया। क्या आश्चर्य कि आज भी भगत सिंह वे अन्य क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहा जाता है।
3. 6 मई 1946 को समाजवादी कार्यकर्ताओं को अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।
4. मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की परिणाम स्वरूप केरल के मोपला में मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दु मारे गए व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया।
5. 1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या अब्दुल रशीद नामक एक मुस्लिम युवक ने कर दी, इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए अहितकारी घोषित किया।
6. गान्धी ने अनेक अवसरों पर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोविन्द सिंह जी को पथभ्रष्ट देश भक्त कहा।
7. गान्धी ने जहाँ एक ओर काश्मीर के हिन्दु राजा हरि सिंह को काश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दु बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।
8. यह गान्धी ही था जिसने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।
9. कॉंग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिए बनी समिति (1931) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गाँधी की जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।
10. कॉंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहा था, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पदत्याग कर दिया।
11. लाहोर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।
12. 14-15 जून, 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुंच प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।
13. मोहम्मद अली जिन्ना ने गान्धी से विभाजन के समय हिन्दु मुस्लिम जनसँख्या की सम्पूर्ण अदला बदली का आग्रह किया था जिसे गान्धी ने अस्वीकार कर दिया।
14. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।
15. पाकिस्तान से आए विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।
16. 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउँटबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपए की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया- फलस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।
             उपरोक्त परिस्थितियों में नथूराम गोडसे नामक एक देशभक्त सच्चे भारतीय युवक ने गान्धी का वध कर दिया, न्य़यालय में चले अभियोग के परिणाम स्वरूप गोडसे को मृत्युदण्ड मिला किन्तु गोडसे ने न्यायालय में अपने कृत्य का जो स्पष्टीकरण दिया उससे प्रभावित होकर उस अभियोग के न्यायधीश श्री जे. डी. खोसला ने अपनी एक पुस्तक में लिखा---- “नथूराम का अभिभाषण दर्शकों के लिए एक आकर्षक दृश्य था, खचाखच भरा न्यायालय इतना भाउक हुआ कि लोगों की आहें और सिसकियाँ सुनने में आती थीं और उनके गीले नेत्र और गिरने वाले आँसू दृष्टिगोचर होते थे, न्यायालय में उपस्थित उन प्रेक्षकों को यदि न्यायदान का कार्य सौंपा जाता तो मुझे तनिक भी संदेह नहीं कि उन्होंने अधिकाधिक सँख्या में यह घोषित किया होता कि नथूराम निर्दोष है,” तो भी नथूराम ने भारतीय न्याय व्यवस्था के अनुसार एक व्यक्ति की हत्या के अपराध का दण्ड मृत्युदण्ड के रूप में सहज ही स्वीकार किया, परन्तु भारत माता के विरुद्ध जो अपराध गान्धी ने किए, उनका दण्ड भारत माता व उसकी सन्तानों को भुगतना पड़ रहा है, यह स्थिति कब बदलेगी? प्रश्न यह भी उठता है की पंडित नाथूराम गोडसे ने तो गाँधी वध किया उन्हें पैशाचिक कानूनों के द्वारा मृत्यु दंड दिया गया परन्तु नाना जी आप्टे ने तो गोली नहीं मारी थी … उन्हें क्यों मृत्युदंड दिया गया ? नाथूराम गोडसे को सह अभियुक्त नाना आप्टे के साथ १५ नवम्बर १९४९ को पंजाब के अम्बाला की जेल में मृत्यु दंड दे दिया गया, उन्होंने अपने अंतिम शब्दों में कहा था…
"यदि अपने देश के प्रति भक्ति भाव रखना कोई पाप है तो मैंने वो पाप किया है और यदि यह पुन्य है तो उसके द्वारा अर्जित पुन्य पद पर मैं अपना विनम्र अधिकार व्यक्त करता हू"। 

चमार नहीं चमरवंश है जिसे हम पद्दलित समझते हैं ---!

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  जिन्हे हम चमार समझते हैं वे चमरसेन वंश के राजपूत हैं वे स्वाभिमानी धर्म रक्षक व धर्म वीर हैं----
         सनातन हिन्दू धर्म जिसे वैदिक धर्म अथवा हिन्दू धर्म कहा जाता है जहां वैदिक काल मे वर्ण ब्यवस्था थी कोई जाती नहीं थी कर्म के अनुसार कोई भी ब्राह्मण अनुसार शूद्र तथा कोई भी शूद्र कर्म से ब्राह्मण हो सकता था, एक समय था जब राजा नहीं था न राज्य था न कोई अपराध करता था न कोई दंड देने वाला था ऐसा हमारा पुरातन वैदिक काल था, महाभारत के पश्चात भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि भीष्म पितामह मृत सईया पर पड़े हैं उनसे उपदेश लेना चाहिए, भगवान कृष्ण सहित युधिष्ठिर वहाँ गये उन्होंने पितामह से पूछा कि हे पितामह जब राज्य नहीं था कोई राजा नहीं था तो समाज की ब्यवस्था कैसे चलती थी पितामह ने उत्तर दिया हे पुत्र--
          ''न राज्यम न राजाषित न दंडों न दंडिका''
उस समय न कोई राजा था न ही कोई दंड देने वाला था क्योंकि कोई अपराधी नहीं था, ऐसा समय वैदिक काल था, ऐसी समाज रचना हमारे पूर्वजों ने बनाई थी गाँव के सभी आपस मे बहन- भाई के रूप मे रहते थे सभी एक दूसरे को चाचा- चाची, दादा- दादी एक परिवार जैसा गाँव, जिसमे कोई गलत दृष्टि नहीं कोई अराजकता नहीं सभी एक दूसरे के सहायक आदर करते थे आपस मे अपनत्व का भाव था ऐसे समाज की रचना।
       
            लेकिन समय बदला जो समाज पुरातन हो जाता है बिकृति आना स्वाभाविक ही है जबकि हिन्दू समाज मे हमेशा परिमार्जित करने की ब्यवस्था थी इसके बावजूद जो समाज के रक्षक थे धर्मबीर थे उन्हे षणयंत्र करके पददलित किया गया वे उपेक्षा के शिकार हुए विदेशियों ने बड़ी ही योजना पूर्बक उन्हे हिन्दू समाज से काटने का काम किया हिन्दू समाज समझ नहीं पाया हमारे ग्रंथो मे इस्लामिक काल मे क्षेपक डालकर भ्रमित किया गया, हिन्दू राजवंश परंपरा मे प्रतिष्ठित चँवरवंश के बारे मे विदेशी विद्वान कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक 'राजस्थान का इतिहास'मे विस्तार से उल्लेख किया है इस वंश का उल्लेख महाभारत के अनुशासन पर्व मे मिलता है इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है की चँवरवंश अन्य सभी हिन्दू राजवंश से प्राचीन और महाभारत कालीन एक प्रतिष्ठित राजवंश था चँवर वंश के राजा यदि सत्ता मे न होते तो वे महाभारत के युद्ध मे भाग लेने के लिए सादर आमंत्रित न किए जाते, इसका प्रमाण स्वतः महाभारत है, चमरसेन वंश जिस परिवार के लड़की का विबाह सूर्यवंश सिसौदिया कुल मेवाण के महाराजा बाप्पा रावल के साथ हुआ हो वह वंश कैसे अछूत हो सकता है यह सोध का विषय है ।
            डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ''शूद्र कौन-?''  मे लिखा है की आज के शूद्र वे नहीं, यानी  वर्तमान और वैदिक कालीन शूद्र अलग-अलग होने का सकारात्मक विश्लेषण किया है, हिन्दू धर्म ग्रन्थों मे वर्णित शूद्र कभी अस्पृश्य नहीं थे शूद्रों मे राजा तथा विद्वान होने के अनेक उदाहरणों का पाया जाना, वैदिक काल के शूद्र आनुवांशिक न होकर कर्म पर आधारित थे, वैदिक काल मे छुवा- छूत व भेद- भाव नहीं था वैदिक ऋषि कवष एलूष, दीर्घतमा जैसे शूद्र जो ऋषि हो गए वे ब्राह्मण श्रेणी मे आ गए वैदिक कालीन राजा सुदास जिसने अश्वमेध यज्ञ किया, जिसके पुरोहित पहले विश्वामित्र बाद मे वशिष्ठ हुए शूद्र कुल मे पैदा हुआ था वह क्षत्रित्व को प्राप्त हुआ ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं इस्लामिक काल के पहले हमारे यहाँ जातियाँ थी ही नहीं याज्ञवल्क्य के ब्रहमण शतपथ मे अथवा महाभारत जैसे ग्रंथ मे भी कहीं इतनी जतियों का वर्णन नहीं मिलता आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने तो इस जातीय ब्यवस्था को एक सिरे से खारिज कर वर्ण ब्यवस्था का पुरजोर समर्थन किया स्वामी विवेकानंद ने भी इसे खारिज किया, तो यह कैसे और क्यों इन हिन्दू समाज के धर्म वीरों को पददलित करने का प्रयास किया गया इस पर चिंतन होना चाहिए ।
          चर्मकार जाती का राजवंशीय इतिहास एवं चवरवंशीय क्षत्रियों का विदेशी आक्रांता शासकों द्वारा बल पूर्वक अवनयन अत्यंत विस्मयकारी है, इस्लामिक उत्पीड़न से अस्पृश्य, दलित और भारतीय मुसलमान जतियों को बलपूर्वक बनाए जाने का साक्ष्यपूर्ण इतिहास मानों मध्यकाल हिन्दू उत्पीड़न का सजीव चित्रा प्रस्तुत कर रहा हो, मध्यकाल के उपरांत भारत के सामाजिक ताना-बाना मे मुसलमान, सिख, दलित एवं वनवासी यानी इन चार समुदाय का उदय होना अपने-आप एक सोध का विषय था, स्वाभिमानी, धर्मरक्षक एवं हिन्दू योद्धाओं द्वारा विदेशी आक्रांताओं के समक्ष घुटने न टेकते हुए धर्म के मूल पर चर्म कर्म स्वीकार करना उनकी हिन्दुत्व के प्रति प्रतिवद्धता को सहज ही अनुभव किया जा सकता है दलितों ने धर्म-परिवर्तन न करके तत्कालीन शासन एवं सत्ता से मिलने वाले लाभ को ठुकरा दिया, उनकी प्रखर इच्छा धर्म की रक्षा रही थी।              
         उत्तर प्रदेश तथा बिहार मे कई स्टेट इस समुदाय के पाये जाते हैं तो मध्यप्रदेश मे जबलपुर के पास चमरसेन वंश का गढ़ आज भी विद्यमान है स्वतन्त्रता आंदोलन मे चाहे इस्लामिक आक्रमणकारी चाहे मुगल अथवा अंग्रेज सभी विदेशियों से युद्ध मे जिंनका योगदान रहा आखिर कैसे वे दलित की श्रेणी मे आ गए बहराइच जिले मे पश्चिम से हिंदुओं को मुसलमान बनाते हुए ''मुल्ला गाजी''आगे बढ़ रहा था राजा सुहेलदेव ने परास्त किया उसका बध कर हिंदुओं की रक्षा की दूसरों तरफ श्रीराम जन्म भूमि मंदिर को ढहाने वाले बाबर के सेनापति मीरबाकी का संहार किया आखिर ये धर्म योद्धा कैसे अछूत हो गए, विचार करने से ध्यान मे आता है जिनहोने देश और धर्म के लिए सतत लड़ते रहे जिनहोने इस्लाम स्वीकार नहीं किया उन्हे समाज से वहिस्कृत करने अछूत घोषित करने का काम इस्लामिक शासकों ने किया जिन्होने उनका समर्थन किया मतांतरण स्वीकार किया वे उच्च कुलीन हो गए यह कैसी बिडम्बना है ।
             जिस समाज मे सबके अंदर ब्रम्ह यानी ईश्वर का अंश हो उसमे भेद कैसे हो सकता है संत रबीदास राजा थे इनकी आर्थिक समृद्धि का आकलन इससे लगाया जा सकता है कि संत शिरोमणि रविदास के जन्म के अवसर पर उनके परिवार वालों ने भोज दिया था और दक्षिणा भी बाटा था ---
                   धन संपत्ति कि कमी न स्वामी, दीना सबकुछ अंतरयामी । 
                   सकल  कुटुंबी  मित्र  जिमाए, भिक्षुक  जन  संतुष्ट  कराए ।
                   निज गुरु  इष्टदेव  सनमाने,  दिये  दान अनुपम  मनमाने ॥ 
           वे 'स्वामी रामानन्द'के शिष्य थे वे सिकंदर लोदी से पराजित हुए उनको काशी मे चमड़े के काम करने को बताया वे संत थे उन्होने स्वीकार किया लेकिन रामानन्द के द्वादश भगवत शिष्यों मे सर्वाधिक लोकप्रिय व शिष्य 'संत रविदास'के पास थे, सिकंदर लोदी को यह बरदास्त नहीं था उसने 'सदन कसाई'को संत शिरोमणि गुरु रविदास को मुसलमान बनाने हेतु भेजा लेकिन ''चढ़े न दूजों रंग''कुछ और हो गया सदन कसाई रामदास हो गया इस घटना को लेकर सिकंदर लोदी ने फरमान जारी किया की ये संत नहीं ये दोनों चांडाल हैं चांडाल, और इन्हे सदन कसाई सहित जेल मे डाल दिया भारत वर्ष के उनके सभी अनुयायियों ने कहा की जब उनके गुरु रविदास चांडाल हैं तो हम भी चांडाल है उन्हे अछूत घोषित किया गया हिन्दू समाज डर गया, इसी चांडाल का अपभ्रंश चमार हो गया उन्होने इस्लाम नहीं स्वीकार किया धर्म नहीं छोड़ा अछूत होना स्वीकार किया, आज हम समझ सकते हैं की संत रविदास के कितने अनुयाई रहे होंगे इसी प्रकार हमारे धर्म वीरों को पददलित किया गया ।        
           गुरु रविदास ने इन पंक्तियों मे हिन्दू चमार जाती कि धर्मपरायणता को चित्रित किया है ------
                              धर्म  सनातन   मानन  हारे,   वेदशास्त्र  हैं  प्राण  हमारे ।
                              पुजा रामकृष्ण चित लाई, गुरु द्विज संत करो सेवकाई।।      

जम्बू&कश्मीर (पी॰ओ॰के॰) की लोकसभा व विधान सभा की सीटें कब भरेंगी --------?

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कश्मीर समस्या हल करने का एक अच्छा कदम हो सकता है-----!

           आजादी के सत्तर साल बाद भी लोकसभा की एक और बिधान सभा की २४ सीटें आज भी ख़ाली पड़ी हैं आखिर क्यों- ? क्या किसी ने इस विषय पर विचार किया यदि नहीं किया तो क्यों ? यह एक गम्भीर विषय है भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने तो जहाँ पर उगली रखी वहाँ उससे भारत को लाभ कम हानि अधिक हुआ कश्मीर, नेपाल, चीन इत्यादि  समस्या मे उन्होने हाथ लगाया आज वह बिषबेल के समान हमारी पीछा नहीं छोड़ रही है जम्बू, कश्मीर और लद्दाख की कुल क्षेत्रफल 222236 बर्ग किमी है जिसमे नेहरू की गलत नीतियों का परिणाम है की पाक अधिकृत कश्मीर के पास एक लाख वर्ग किमी है पाकिस्तान ने जो भाग चीन को दिया उसका क्षेत्रफल 5180 वर्ग किमी है 1962 मे जो भाग चीन ने कब्जा किया वह 3755 वर्ग किमी है।
          वर्तमान मे लद्दाख का क्षेत्रफल 59136 वर्ग किमी और जनसंख्या दो लाख है, कश्मीर का क्षेत्रफल 15948 वर्ग किमी जनसंख्या 58 लाख और जम्बू का क्षेत्रफल 26293 वर्ग किमी जनसंख्या 62 लाख है इसके बिपरित जब विधान सभाओं का बटवारा कुछ इस प्रकार है कश्मीर पास 58 लाख जनसंख्या पर 47 विधान सभा सीट है जम्बू की जनसंख्या 62 लाख सीट 36 तथा लद्दाख दो लाख पर 4 सीट है पाक अधिकृत कश्मीर की 24 व्विधन सभा एक लोक सभा सीट खाली पड़ी रहती है ।
           देश विभाजन के पश्चात पाकिस्तान अर्थात पाक अधिकृत कश्मीर से आए हुए हिन्दू बड़ी संख्या मे है एंग्लोइंडियन को हम लोकसभा तथा अन्य 'लोकसभा'तथा 'राज्य सभा''मे नियुक्ति करते है तो पाक अधिकृत कश्मीर व चीन अधिकृत कश्मीर से क्यों नहीं नियुक्ति कर सकते--! आखिर हम पाकिस्तान से आए हुए लोगों को चौबीस सीटों पर मनोनीत क्यों नहीं करते, हमे लगता है की अब समय आ गया है भारत एक लोकसभा सीट और चौबीस विधानसभा सीटों पर पाक से आए हुए लोगों को विधान सभा मे मनोनीति कर रिक्त सीटों को पूरा करना चाहिए क्यों कि हमने कई बार लोकसभा मे प्रस्ताव पारित कर चुके हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है पाकिस्तान उसे खाली करे --! यह एक बड़ा कदम होगा कि उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व वहाँ के मूल निवासियों द्वारा होगा और "जम्बू & कश्मीर"समस्या का समाधान भी होगा, इससे कश्मीर समस्या समझने  औए सुलझाने मे सहायता मिलेगी जो पाक अधिकृत कश्मीर से आए हिन्दू हैं उन्हे अपने अधिकार भी मिलेगा ।
        भारत सरकार को यह समझना होगा शासन दम के आधार पर चलता है न कि समझौतावादी नीति से कड़ाई से संविधान का पालन यदि लोग "मुस्लिम परसनल ला"चाहते हैं भारतीय संविधान नहीं तो देश इनके बारे मे विचार करे क्या भारतीय संविधान किसी महिला या पुरुष पर अत्याचार कि अनुमति देता है ---?         
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